खुले समाज की दृष्टि
एक बार एक संपन्न मारवाड़ी परिवार के वर-वधू महात्मा गांधी से आशीर्वाद लेने गये। वर-वधू ने झुक कर गांधी जी के चरण छुए। वधू का सारा चेहरा घूंघट के पर्दे से ढंका जिसे हटाते हुए गांधी जी बोले, ‘मेरे प्यारे बच्चे! भगवान ने यह चांद-सा मुखड़ा कमल की तरह खिले रहने के लिये दिया है, दृष्टिबाधित बनकर जीने के लिए नहीं। इसमें से तुम स्पष्ट रूप से देख भी नहीं पा रही हो।’ आशीर्वाद का हाथ सिर पर फेरते हुए वात्सल्य भरे मन से फिर बोले, ‘दृष्टिबाधित बनकर जीना बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य के हृदय में पवित्र विचार, बुद्धि में शुभ चिंतन और आत्मा की पवित्रता हो, तो कमल समान मुख मंडल पर पर्दा डालकर अपने सामने अंधेरा कर लेना स्वयं के प्रति हिंसा है। हिंसा चाहे स्वयं के प्रति हो या दूसरों के प्रति, यह मुझे पसंद नहीं है। जाओ, तुम्हारा मंगल हो। गांधी जी के इस विचार का परिणाम कालांतर भारतीय समाज में आया कि आज नारी ने पर्दे की बुराई से मुक्त होकर पुरुष के समान अनेक प्रशंसनीय कार्य समाज में कर दिखाए।
प्रस्तुति : बनीसिंह जांगड़ा