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मनोरंजक फिल्में ही रास आ रही हैं आम दर्शकों को

10:52 AM May 25, 2024 IST
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बीते कुछ सालों में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर मुहैया वेब सीरीज की सफलता से लगता है कि अब सिनेमाघरों की जगह इन्होंने ले ली है। लेकिन ऐसा है नहीं। दरअसल वेब सीरीज व फिल्मों का कंटेंट जुदा है वहीं दर्शक वर्ग भी अलग। भले टिकट लेकर थिएटर में फिल्म देखना कुछ महंगा हो लेकिन वहां तीन घंटे की फिल्म देखना आम आदमी के लिए कंपलीट मनोरंजन है। वहीं पढ़े-लिखे वर्ग की रुचि का कंटेंट वेब सीरीज में मिलता है।

डी.जे.नंदन

हालांकि यह बहस अब कई साल पुरानी पड़ चुकी है, लेकिन हाल में एक बार फिर से इस बहस ने सिर उठाया है, क्योंकि इधर कई फिल्मों का बहुत बुरा हाल रहा है, जिनके मुकाबले ओटीटी में ‘हीरामंडी’ जैसी कुछ वेब सीरीज ने अच्छा बिजनेस किया है। लेकिन सवाल है कि क्या ओटीटी सिनेमाघरों का वास्तव में विकल्प बन सकता है? निश्चित रूप से ऐसा होता तो नहीं लग रहा। भले सोचने में ओटीटी विकल्प बहुत सस्ता और ज्यादा लोकतांत्रिक लगे, लेकिन इस सस्ते और लोकतांत्रिक विकल्प के लिए जो शुरुआती निवेश और पृष्ठभूमि चाहिए, वह हर आदमी के लिए संभव नहीं है। जब तक सिंगल टाकीज़ का विकल्प था, तो एक आम आदमी छोटे शहरों में 20 से 50 रुपये में सिनेमा देखने का अपना शौक पूरा कर लेता था। अब हालांकि बड़े शहरों में खासकर महानगरों में सिंगल टाकीज़ वाले सस्ते विकल्प नहीं बचे, फिर भी ‘ऑड’ समय के शो और इसी तरह के कई दूसरे विकल्प अभी तक हैं, जिनके चलते कोई आम आदमी मल्टीस्क्रीन में भी 100 से 200 रुपये के बीच में फिल्म देख सकता है। हालांकि ओटीटी का विकल्प इस दूसरे विकल्प से भी कहीं सस्ता लगता है। क्योंकि ज्यादातर प्रसारण कंपनियां 200 से 300 रुपये मासिक के विकल्प पर ओटीटी यानी ओवर द टॉप मनोरंजन को देखने का मौका तो देती ही हैं।

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ओटीटी के अनुकूल हो दर्शक वर्ग

सबसे पहले तो ओटीटी विकल्प का आनंद उठाने के लिए आपके पास एक आधुनिक एंड्रॉयड फोन होना चाहिए, जो कम से कम 10 हजार रुपये का मिलता है। दूसरी बात यह कि ओटीटी महज सिनेमाघरों में दिखायी जाने वाली फिल्मों का विकल्प नहीं बल्कि एक ‘टेस्ट’ है। आपमें ओटीटी देखने के लिए एक खास तरह के संस्कार चाहिए। हालांकि ओटीटी में जितनी गाली-गलौज का कंटेंट होता है, वह तो कई बार सी ग्रेड की फिल्मों में भी नहीं होता। मगर चूंकि ओटीटी जिन विषयों को लेकर बनती हैं, वे विषय सम-सामयिक, बहुचर्चित होते हैं। उन पर हिस्सेदारी के लिए भी आपमें एक स्तर का होना जरूरी है। इसीलिए देखा गया है कि ज्यादातर ओटीटी वेब सीरीज उन विषयों पर बनती हैं, जिन पर पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की खूब रुचि होती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म सिनेमाघरों की जगह इसलिए भी नहीं ले सकते क्योंकि सिनेमाघरों की तरह नियमित रूप से इस प्लेटफॉर्म पर फिल्म जैसे मनोरंजन की व्यवस्था नहीं होती। हालांकि अगर आप देश-दुनिया से कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं, तमाम विषयों पर अपनी एक राय रखते हैं और समाज में जो कुछ हो रहा है, वह आपको परेशान करता है तो यहां आपके मनोरंजन के साधन ज्यादा होते हैं, लेकिन फिर वही बात कि इस स्तर के कंटेंट में रुचि लेने के लिए आपमें एक खास तरह की पढ़ाई-लिखाई होनी चाहिए। एक खास श्रेणी का सामाजिक स्तर भी होना जरूरी है। तभी आप ओटीटी के अनुकूल यूजर बन सकते हैं।

हल्के-फुल्के मनोरंजन की चाह

कोरोना काल में जरूर ओटीटी यूजर फेवरेट बन गया, लेकिन ध्यान रखिए कोरोना काल में भी यह मध्यवर्ग तक ही अपनी जबरदस्त जगह बना सका था। क्योंकि उसी की रुचि के मुताबिक ही ये तमाम सीरीज बनायी गई होती हैं। जबकि आम आदमी को बहुत गंभीर फिल्में पसंद नहीं आतीं। उसे ऐसी फिल्में चाहिए, जो उसकी तमाम तरह की परेशानियों के चलते पैदा हुए तनाव में कुछ देर के लिए राहत दें व उसे अपने दिमाग पर ज्यादा जोर भी न डालना पड़े। एक बात यह भी है कि ओटीटी एक ऐसा मंच है, जिसे आप अकेले ही इंज्वॉय कर सकते हैं। जबकि आम आदमी जब फिल्म देखता है तो वह उसके लिए सामूहिक गतिविधि होती है। यार-दोस्तों के साथ फिल्में देखने का मजा ही कुछ और है।

आउटिंग का मौका

आम लोग जब वेतन मिलने के बाद आमतौर पर महीने की पहली और आखिरी फिल्म दिखने का प्रोग्राम बनाता है तो सिर्फ वह फिल्म नहीं देखता इस बहाने उसकी आउटिंग भी हो जाती है। इसी के चलते वह अपने बीवी-बच्चों के साथ बाहर घूमने और खुश होने का छोटा सा मौका भी तलाश लेता है। बच्चे बाहर चाऊमिन से लेकर तमाम स्नैक्स खा लेते हैं, जबकि पैरेंट्स अकसर पानी-पूरी से काम चला लेते हैं। इससे ज्यादा बजट हुआ तो सिनेमा देखने वाले दिन बाहर खाने का भी प्रोग्राम बन जाता है। कुल मिलाकर जब कोई आम व्यक्ति थियेटर जाकर सिनेमा देखने का प्रोग्राम बनाता है तो वह सिर्फ फिल्म देखनाभर नहीं होता बल्कि महीनेभर के लिए कंप्लीट मनोरंजन का पैकेज होता है। निश्चित तौर पर यह सुविधा ओटीटी नहीं देता।

लंबी अवधि की समस्या

एक और भी समस्या है। आमतौर पर ओटीटी पर दिखायी जाने वाली वेब सीरीज एक साथ नहीं आतीं। वह अलग-अलग खंडों में आती हैं और कई बार एक खंड आठ-आठ, नौ-नौ घंटे का होता है जबकि फिल्म दो से तीन घंटे की होती है। सात-आठ घंटे तक किसी कहानी के साथ या किसी विषय के साथ बने रहना आम लोगों के बस में नहीं होता और उसमें भी जब सात-आठ घंटे के टुकड़ों में भी बेव सीरीज खत्म नहीं होती बल्कि उसके अलग-अलग सीजन चलते हैं तो ऐसी वेब सीरीज उन लोगों के लिए कतई काम की नहीं होती, जो दो-तीन घंटे का मनोरंजन करके उस विषय को भूल जाने के लिए फिल्म देखते हैं। कुल मिलाकर वेब सीरीज या ओटीटी का कंटेंट गंभीर सोचने-समझने वाले लोगों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। जबकि दो से तीन घंटे के बीच की बहुसंख्यक फिल्में ऐसे विषयों पर बनायी जाती हैं जो देखने वाले को तभी तक इंगेज करती हैं, जब उन्हें देखा जा रहा हो। इसलिए सिनेमाघर और ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म एक-दूसरे का पूर्ण विकल्प नहीं हो सकते, पूरक जरूर हैं।

-इ.रि.सें.

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