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शिक्षा से ही टूटेगा डेरों और बाबाओं का तिलिस्म

09:06 AM Jul 24, 2024 IST
शिक्षा से ही टूटेगा डेरों और बाबाओं का तिलिस्म
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गुरबचन जगत

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(मणिपुर के पूर्व राज्यपाल)

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वर्ष 1971 में मैंने पुलिस सेवा ज्वाइन ही की थी जब बतौर एसएसपी कपूरथला मेरी नियुक्ति हुई। सप्ताह के आखिर में अपने गांव आया, सोचा था सुबह देर से उठूंगा और दिनभर आराम करूंगा। लेकिन मुझे सूर्य उदय से पहले उठना पड़ा जब परिवार के पुराने नौकर ने सूचित किया कि पड़ोस के गांव से जीतू जट्ट नाम का व्यक्ति मुझसे मिलना चाहता है। मुझे याद आया कि जीतू तो वही है जो एक छोटा-मोटा भविष्यवक्ता है और अपने तीर-तुक्कों से लोगों के खोए पशु पाने में मदद किया करता है। लेकिन उस वक्त वह खुद पूरी तरह शर्मिंदा था जब बताया कि उसकी हवेली से उसके अपने बैल चोरी हो गए हैं! मैंने उसे पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने को कहा, पर उसने झिझकते हुए कहा कि यह करना उसके धंधे के लिए बुरा सिद्ध होगा क्योंकि लोग कहेंगे खुद पर पड़ी तो पुलिस की मदद लेने चला गया। खैर, उसके पशु मिल गए और उसकी ‘साख’ सलामत रही। आमतौर पर माना जाता है कि इस किस्म की गतिविधियां गरीब और अनपढ़ों तक सीमित होती हैं- तो यहां मुझे आपकी गलतफहमी दूर करने दें। यह बात मैं पुलिस सेवा में बहुत साल बिताने और काफी अनुभव पाने के आधार पर कह रहा हूं। यह कहानी है हमारे पूरे देश की और कैसे बहुत से भविष्य बताने वाले, शामन, बाबा और छोटे-मोटे शातिर इतने बड़े हो गए कि सत्ता का तानाबाना तक उनके हाथ में आ गया।
इस सदी के शुरू में मैं दिल्ली में एक महत्वपूर्ण सुरक्षा बल के मुखिया के तौर पर नियुक्त था। कुछ दिनों बाद एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी मुझे मिलने आए और एक तरह से मुझे आदेश दिया कि मैं उनके साथ जाने-माने बाबा के यहां चलूं। मैंने उन्हें बताया कि मैं उस ‘भले मानुस’ को ‘अच्छी तरह’ जानता हूं लिहाजा उसके पास नहीं जाऊंगा। मैंने उसका सफर तहसील स्तर से जिला स्तरीय और फिर राजधानी में राज्यस्तरीय होते देखा था, जहां उसकी छवि एक छोटे-मोटे कथित ज्योतिषी की थी, जो भोले-भाले लोगों को अपनी बातों से झूठी तसल्ली परोसता हो (अधिकांश स्थानीय लोग उसकी असलियत से वाकिफ थे और उसका ठेठ पंजाबी में एक हास्यपूर्ण सा उपनाम भी प्रचलित था)। फिर वह दिल्ली चला आया जो कि उसका मास्टर स्ट्रोक सिद्ध हुआ क्योंकि यहां आकर उसने नए रंग-ढंग के दबंग और चमत्कारी बाबा वाले अवतार में खूब चांदी काटी। मेरे पूर्व वरिष्ठ अधिकारी मेरे इंकार से कुछ मायूस हुए, फिर भी उन्होंने मुझे यह कहकर मनाने की कोशिश की कि खुद उसने मुझे साथ लाने को कहा है। परंतु मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। किंतु इससे पहले मैं जल्दी से आपको इन बाबाओं के सत्संग के अपने निजी अनुभव बताना चाहूंगा (हमारी एजेंसियां इन सबकी खबरें लगातार देती रहती थीं)। ऐसे एक बाबा के यहां वीआईपी लोगों का तांता लगा रहता जिसमें भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी और उनकी पत्नियों, केंद्रीय मंत्रियों से लेकर अन्य उच्च पदेन लोग हाजिरी भरते। वे वहां क्या करते रहते थे? कुछ महिलाएं जो वैसे तो अपनी हैसियत की वजह से नकचढ़ी रहती थीं, लेकिन डेरे में बाबा के पैर दबाती, कुछ तो उसके सिर पर चम्पी इत्यादि किया करती थीं। जो वहां देखा वो ऐसा कि उस पर यकीन करने को आंखें मलनी और खुद को चिकोटी काटनी पड़े।
यह तथाकथित दैवीय पुरुष राष्ट्रीय स्तर की नीतियों– आर्थिक और राजनीतिक- तक को प्रभावित करने का दम रखते हैं। कुछेक ऐसे दैवीय पुरुष भी थे जो दिल्ली के मालिकों से कहीं ऊंचे दायरों में विचरा करते और हीरे की अंगूठियों से अटी उनकी अंगुलियां बहुत से चमत्कार दिखातीं... कुछ नाम लेकर बताऊं, तो दिमाग में धीरेंद्र ब्रह्मचारी, महेश योगी और चंद्रास्वामी कौंध रहे हैं।
चलिए फिर से वर्तमान में लौटते हैं, परिदृश्य में जिधर देखो कोई न कोई डेरा और भांति-भांति के रंगों और स्वरूप वाले बाबा नजर आते हैं। कुछ गांव के स्तर के साधारण बाबा हैं, कुछ शहर स्तर के और कुछ राज्यस्तरीय, कुछ आंचलिक स्तर के तो कुछ राष्ट्रीय स्तर वाले। इनमें अधिकांश की शख्सियत में कुछ अंश चमत्कारी पुरुष का, कुछ राजनेता वाला, कुछ व्यापारी, कुछ अकूत जमीन जायदाद का स्वामी और इन सबसे ऊपर है, बातों से प्रभावित करने की कला। गरीब लोग उनके पास अपनी रोजमर्रा की छोटी-मोटी समस्याओं का चमत्कारी निवारण पाने की चाह लिए जाते हैं, अमीर और अमीर होने को, राजनेता वोट हासिल करने और इसके बूते सत्ता हथियाने की गर्ज से। मेरा यकीन कीजिए, जितना बड़ा डेरा होगा उतना बड़ा उसका वोट बैंक होगा और उतनी ही बड़ी संख्या होगी चुनाव के वक्त दंडवत करने वाले नेताओं की। कृपया यह न सोंचे कि मैं यह सब बढ़ा-चढ़ाकर लिख रहा हूं। राज्य सरकार का खुफिया विभाग इन डेरों का आकलन करता है, उनके भक्तों की संख्या और वित्तीय संपत्ति का अनुमान लगाता है। यह सूचना उन्हें डोरे डालने अथवा ब्लैकमेल करने के काम आती है। उनको मुहैया सुरक्षा के ब्योरे के मुताबिक बाबा की हैसियत ऊंची या कम आंकी जाती है। अब तो वे एक कदम आगे जाकर खुद चुनाव लड़ने लगे हैं–क्या राजनेता इसे अपने लिए खतरे की घंटी मानेंगे? क्या आपको वह ‘डिस्को बाबा’ याद आया और कैसा तांडव उसने हरियाणा में मचाया था? जब जी करता है कभी जेल में तो कभी पैरोल पर अपने आश्रम में होता है। बहुत से बाबा बलात्कार और हत्या के अभियोग में जेल काट रहे हैं, लेकिन कारागर भी उनके लिए आश्रम ही है।
कहीं पाठक यह न समझे बैठें यह सब केवल भारत में होता है, तो यहां मुझे बताने दीजिए कि विश्व इतिहास में ऐसे कई मामले हैं जहां तथाकथित दैवीय पुरुष अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोगों के अंधविश्वास, डर और गरीबी का दोहन करते आए हैं। उनके कई नाम हो सकते हैं ...शामन से लेकर मंगोल तक, काले जादू में माहिर से लेकर रेड इंडियन तक, इंग्लैंड के ड्रयुइड और प्राचीन यूनान के नज़ूमी भी, लेकिन समाज में जो खराबी उन्होंने रोपी, वह इतिहास में एक समान है। रूस में ज़ार पर रास्पुतिन नामक नज़ूमी की शैतानी छाया हावी रही। जब कोई रास्पुतिन या दैवीय पुरुष शीर्ष स्तर पर अपना प्रभाव बना ले तो बाकी देश में देखादेखी छोटे-मोटे प्रारूप कुकुरमुत्ते की भांति उग आते हैं। 20वीं सदी के शुरू में सिखों को अपने गुरुधाम महंतों के चंगुल से छुड़वाने के लिए एक पूरा आंदोलन चलाना पड़ा था। इन महंतों को ब्रिटिश सरकार की शह प्राप्त थी और उन्होंने ऐतिहासिक गुरुद्वारों के धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्वरूप को बदलकर, अपनी निजी जागीर में तबदील कर डाला था। इस तरह का बड़ा खेल आज भी जारी है–मायावी, कथित दैवीय पुरुष, राजनेता का गठजोड़ बनाम साधारण जनता। वैज्ञानिक सोच और सम स्वभाव रखने वालों की गिनती दयनीय रूप से अत्यंत कम हैं। इन बाबाओं की शैतानी यह कि अपने भक्तों को, विशेषकर गरीब आस्थावानों को, अज्ञानता और उम्मीद रूपी शिकंजे में फंसाए रखते हैं।
हमारी अधिकांश समस्याओं, इस वाली समेत, का उपचार केवल शिक्षा है। शिक्षा दिमाग से सभी जाले हटा देती है और वैज्ञानिक सोच पैदा करती है। सबसे ऊपर, जिज्ञासा का तार्किक उत्तर पाने को यह हर चीज और हरेक प्रपंच पर सवाल करना सिखाती है, तभी तो बाबा चाहते हैं कि चेले उनके अंधभक्त बने रहें तो वहीं राजनेताओं की तरजीह है कि जनता अपने हकों से अंजान बनी रहे, ये दोनों जिज्ञासु सोच को बढ़ावा देना कतई नहीं चाहेंगे। निष्कर्ष में, मैं रबिन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन और इसके कालजयी ज्ञान का आह्वान करना चाहूंगा ‘जहां चित्त भयहीन है... जहां ज्ञान मुक्त है... आजादी के उस स्वर्ग में बैठे परमपिता... मेरे देशवासियों को जागरूक बनाएं।’

लेखक द ट्रिब्यून के ट्रस्टी हैं।

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