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बड़े बदलाव ही रोकेंगे चुनावी कदाचार

06:10 AM Oct 08, 2024 IST

केपी सिंह
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 द्वारा प्रदत्त ‘वयस्क मताधिकार’ लोकसभा और विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनाव का आधार है। 18 वर्ष से अधिक आयु का भारत का प्रत्येक नागरिक, जो अन्यथा अयोग्य नहीं है, मतदाता के रूप में पंजीकरण का हकदार है। यह अधिकार लोकतंत्र की रीढ़ है जिसमें किसी व्यक्ति की धन-सम्पत्ति, हैसियत और शारीरिक बल कोई मायने नहीं रखता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराना भारत के चुनाव आयोग का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है, क्योंकि यह चुनावों पर निगरानी रखने वाला एकमात्र संवैधानिक प्राधिकरण है। इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 329 के अंतर्गत चुनावी मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप पर भी रोक है, चुनाव प्रक्रिया सम्पूर्ण हो जाने पर ही चुनाव याचिका दायर की जा सकती है।
इसके बावजूद चुनाव प्रचार धोखाधड़ी, विश्वासघात, चुनाव प्रक्रियाओं में हेराफेरी, धन और बाहुबल के जबरदस्त दुरुपयोग की गाथा जैसी विसंगतियों से रूबरू होना है। जहां भ्रष्ट आचरण इतने ज्वलंत और विविध हैं कि चुनाव पर्यवेक्षक भी यह सुनिश्चित करने के लिए आतुर रहते हैं कि चुनाव प्रक्रिया निर्बाध रूप से चलती रहे और शिकायतों पर ध्यान देना उनकी प्राथमिकताओं में नहीं रहता है।
जिस दिन से उम्मीदवारी तय हो जाती है, उसी दिन से गलियों में मुफ्त शराब का प्रवाह शुरू हो जाता है, खासकर उन कालोनियों में जहां वंचित वर्ग के लोग कस्बों और गांवों के बाहरी क्षेत्रों में रहते हैं। लोग जानते है कि वे अपनी आपूर्ति कहां से पूरी कर सकते हैं और पुलिस भी आमतौर पर इसे नज़रअंदाज कर देती है। आपूर्तिकर्ता कौन-सी पार्टी से है यह सभी को पता होता है। ऐसे शराबियों के चेहरे पर अविश्वास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और उन्हें प्रत्येक उम्मीदवार द्वारा खोले गए शराब आपूर्ति बिन्दुओं के इर्द-गिर्द घूमते देखा जा सकता है। उम्मीदवार के एजेंट से हस्ताक्षरित पर्ची दिखाने पर शराब की दुकानों पर डिजिटल भुगतान के माध्यम ने शराब की सप्लाई को आसान बना दिया है।
शराब पर अंधाधुंध खर्च अन्य सभी चुनावी खर्चों से अधिक होता है। यह जानकर और भी परेशानी होती है कि कई चुनावों में शराब ही चुनाव नतीजे गहरे तक प्रभावित करती है। वोट के बदले नोट एक कटु सत्य है, धनराशि चुनाव के महत्व और मतदाता की स्थिति के आधार पर निर्भर होती है। नगदी को ठेकेदारों के माध्यम से वितरित किया जाता है जो वोटों के सम्भावित खरीदार के साथ एक समझौता करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी विशेष उम्मीदवार के लिए क्षेत्र के एक विशेष संख्या में वोट डाले जाएं। यहां तक कि घर-घर जाकर सूट या साड़ी के साथ नकदी देकर भी व्यक्तिगत वोट को खरीदा जाता है। कुछ उम्मीदवारों द्वारा मतदान के दिन मतदान-पर्ची की आड़ में नकदी की पेशकश करते हुए भी देखा गया है। कहीं-कहीं वोट डालने का शुल्क रुपये प्रति वोट तक निर्धारित होता है। यह जानना दिलचस्प है कि स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों के कई लालची निर्वाचित प्रतिनिधि चुनाव से ठीक पहले समूह बनाते हैं और अपने प्रभाव वाले वोटों के लिए सामूहिक रूप से उम्मीदवारों से सौदेबाजी करते हैं।
राजनीतिक दलों का चुनाव घोषणापत्र, राष्ट्रीय प्रचार माध्यमों पर बहस के लिए एक दस्तावेज से अधिक कुछ भी नहीं होता है। सड़कों पर चुनाव सामान्यत: स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और इसमें उम्मीदवार का चेहरा और किरदार बहुत मायने रखता है। हालांकि, कुछ आकर्षक वादे जैसे मासिक पेंशन और मतदाताओं को लैपटॉप आदि देना भी तुरंत काम करते हैं। जाति, पंथ, धर्म और आस्था चुनाव परिणाम निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उम्मीदवारों को ऐसे संतों और साथियों से समर्थन प्राप्त करते देखा जा सकता है।
प्रतिद्वंद्वी दलों द्वारा प्रतिदिन अभियान के लिए राजनीतिक बयानबाजी और मुद्दे निर्धारित किए जाते हैं और संचार माध्यम इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय चुनाव आयोग, चुनाव प्रचार में बेलगाम सोशल मीडिया और यूट्यूबर्स के हस्तक्षेप पर ध्यान देने में विफल रहा है। सोशल मीडिया और स्वतंत्र यूट्यूबर्स की मांग उम्मीदवारों पर बहुत भारी पड़ती है और वे अच्छा भुगतान न मिलने पर उम्मीदवार को परेशान करने या उसकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए उनके मुंह में विवादित शब्द डालने की कोशिश करते हैं। पेड-न्यूज और दुर्भावनापूर्ण अभियान के आरोप भी लगते हैं। स्थानीय पुलिस और प्रशासन में जिला-स्तर के प्रमुखों के पाक-साफ इरादों के बावजूद सत्ताधारी दल के कदाचारों को नज़रअंदाज का स्पष्ट पूर्वाग्रह है, क्योंकि निचले स्तर के पदाधिकारी, जिन्हें जिले में सेवा करनी होती है, प्रभावशाली स्थानीय राजनेता को नाराज करने का जोखिम नहीं लेते हैं।
चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक हालांकि उम्मीदवारों को शिकायत दर्ज करने और गलत काम करने वालों को कुछ हद तक रोकने के लिए एक तंत्र प्रदान करते हैं, लेकिन स्थानीय अधिकारियों पर निर्भरता के कारण उनकी क्षमताएं सीमित हैं। इसके अतिरिक्त वे वास्तव में सक्रिय रुख अपनाने की बजाय अक्सर निष्क्रिय बने रहने में ही भला महसूस करते हैं।
भारतीय न्याय संहिता 2023 (बीएनएस) की धारा 169 से 177 तक में चुनावों में रिश्वतखोरी और भ्रष्ट आचरण करने वालों के लिए एक साल तक की कैद की सज़ा का प्रावधान है, लेकिन ये प्रावधान असंज्ञेय हैं और पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं कर सकती, जिससे ये प्रावधान निरर्थक और दंतहीन हो जाते हैं। चुनावी अपराधों को संज्ञेय बनाकर कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावों की गंगोत्री को निहित स्वार्थों द्वारा दूषित करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। चुनाव प्रचार में नित नईं धांधलियों का जायजा लेना और सुधारात्मक उपाय करना भारतीय चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। अभियान प्रक्रिया में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। डिजिटल भारत में राष्ट्रीय मीडिया पर बहस पारम्परिक चुनावी रैलियों की जगह ले सकती है लेकिन प्रचार सामग्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। चुनाव मशीनरी जिले से बाहर की होनी चाहिए और राज्य में राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत चुनाव प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए।
चुनाव के दौरान कदाचार और भ्रष्ट आचरण करने वाले अधिकारियों पर चुनाव आयोग को सख्त रवैया अपनाना चाहिए। चुनाव के दौरान दर्ज मामलों में अपराधी सामान्यतया चुनाव आयोग द्वारा पर्यवेक्षण और निगरानी की कमी के कारण दंडित नहीं हो पाते हैं। पर्यवेक्षकों को राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के भ्रष्ट आचरण की जांच करनी चाहिए और उनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। चुनाव आयोग और चुनावी कदाचार के प्रति व्यवस्था के दृष्टिकोण में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
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लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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