स्क्रिप्ट की कद्र ही लौटाएगी सिनेमा का सुनहरा दौर
असीम चक्रवर्ती
फिल्मोद्योग का वह एक स्वर्णिम दौर था, जब फिल्म की स्क्रिप्ट और डायरेक्टर दोनों ही किसी भी फिल्म का एक उल्लेखनीय पक्ष होते थे। मगर आज दोनों ही मजबूत पक्ष हाशिए पर आ चुके हैं। जाहिर है इसकी एक बड़ी वजह कुछ नाकाबिल निर्देशक रहे हैं। गिनती के ही निर्देशक हैं, जिनकी फिल्मों की दर्शक प्रतीक्षा करते हैं।
डायरेक्टर बनना बड़ा आसान
खबर आई है, स्टैंडअप कॉमेडियन कृष्णा अभिषेक फिर से अपनी पत्नी कश्मीरा शाह के निर्देशन में एक फिल्म शुरू करने वाले हैं। कश्मीरा की पहली निर्देशित फिल्म के हश्र पर नये सिरे से चर्चा बेमानी है। आए दिन इंडस्ट्री में ऐसे नये निर्देशक आ रहे हैं जिसके चलते काबिल निर्देशक पीछे जा रहे हैं।
सफल निर्देशकों ने समां बांधा
एक तरफ जहां नए निर्देशकों का आना-जाना लगा, वहीं दूसरी तरफ चंद सफल निर्देशकों ने हमेशा बॉलीवुड में समां बांधे रखा। यदि 90 के दशक से इसकी शुरुआत करें, तो इसका सफल उदाहरण यश चोपड़ा के पुत्र आदित्य चोपड़ा ने दिया। उन दिनों यश चोपड़ा, सुभाष घई जैसे दिग्गज निर्देशक अपना परचम लहराने के बाद आरामतलबी में थे। ऐसे में आदित्य ने इस मौके को लपक लिया। उन्होंने अपने करिअर का आगाज ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ जैसी सुपरहिट से किया तो सभी चौंक पड़े। इसके बाद भी उनका रिद्म टूटा नहीं। ‘मोहब्बतें’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’ में उनका करिश्मा कायम रहा। लेकिन जब तक पिता का सान्निध्य रहा,उनके सृजन में एक अंकुश बना रहा। मगर यश जी के अस्वस्थ होते ही आदित्य का जादू भी कुंद होने लगा। कहा जाता है कि यश चोपड़ा की अंतिम फिल्म ‘जब तक है जान’ के फ्लॉप होने में आदित्य की जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी भी एक वजह बनी। उनके बाद आए करण जौहर,आशुतोष गोवारिकर आदि की सफलता भी महज एक फ्लूक बन कर रह गई।
सिलसिले की कड़ी
इसी कड़ी में विधु विनोद चोपड़ा, संजय लीला भंसाली, रामगोपाल वर्मा, राजकुमार हिरानी, डेविड धवन, अनीस बज्मी, रोहित शेट्टी व नीरज पांडे आदि कई निर्देशकों का बॉलीवुड में अहम योगदान रहा। मगर इनमें कई अपनी मौलिकता ज्यादा दिन बनाए नहीं रख पाए। इसकी दो वजहें रही - पहली, नयेपन के नाम पर किसी स्टोरी लाइन को तोड़ते-मरोड़ते या किसी एजेंडा को फॉलो करते नजर आए। दूसरी, इनकी कमजोरी स्क्रिप्ट के ज्ञान को लेकर थी। आज की ज्यादातर फिल्मों के पिटने की बड़ी वजह कमजोर स्क्रिप्ट ही बन रही है। हिरानी की ‘डंकी’ व नीरज पांडे की ‘औरों में कहां दम था’ ऐसी स्क्रिप्ट का उदाहरण बनीं। वैसे ये सारे निर्देशक इस मामले में सचेत हो जाएं, तो उनकी आगे की फिल्में भी काफी सराहनीय होंगी।
नए निर्देशकों की कोशिश
नये डायरेक्टर्स की तो जैसे एक बाढ़ आई है। मगर ज्यादातर रुटीन टाइप का करिश्मा लेकर आते हैं। अब जैसे कि ‘बधाई हो’ के निर्देशक अमित शर्मा। उनकी फिल्म वाकई में काबिलेतारीफ थी। मगर अजय देवगन के साथ ‘मैदान’ में वह कुछ खास रंग जमा नहीं पाए। इस मामले में ‘स्त्री’ के निर्देशक अमर कौशिक सजग दिखाई पड़े। उनकी अगली फिल्म जो ‘स्त्री’ का ही पार्ट-2 था, सफल रही। हालांकि उनकी अगली अग्निपरीक्षा तब होगी,जब वह ‘स्त्री’ से अलग कुछ सोचेंगे।
कहां गया वह स्वर्णिम दौर
बेशक, ज्यादातर संजीदा सिने रसिक बॉलीवुड के स्वर्णिम दौर के दिग्गज फिल्मकारों को याद करते हैं। जब महबूब खान, कमाल अमरोही, के. आसिफ, बिमल राय, राज कपूर, गुरुदत्त, हृषिकेश मुखर्जी, बी.आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई जैसे काबिल निर्देशकों से बॉलीवुड भरा पड़ा था। ये डायरेक्टर्स स्क्रिप्ट का महत्व समझते थे। कोई इस बात से भला कैसे इंकार कर सकता है कि आसिफ की कल्ट क्लासिक काल्पनिक फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ को पांच-पांच लेखकों ने मिलकर लिखा था। शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि आज भी इसके संवाद संजीदा दर्शकों को याद हैं। मगर आज के डायरेक्टर्स ऐसी सोच से बहुत दूर हैं। इसके चलते ही शायद फिल्में न अच्छी आ रही हैं, न दर्शनीय।