अपने-अपने दुःख
अशोक जैन
थकी-हारी शकुन बस से उतरते ही कोलतार की पिघलती सड़क पर लगभग सरकते हुए अपनी सोसायटी के गेट पर पहुंची। गार्ड ने उसे रोका, ‘बी जी, खत आया है आपका। ऊपर फ्लैट पर कोई था नहीं, सो डाकिया मुझे दे गया।’
शकुन ने पत्र लिया और हाथ में झुलाते हुए फ्लैट की ओर मुड़ गयी। दरवाजा खोलते ही उसकी आह-सी गर्म हवा से उसका सामना हुआ। बैग को मेज पर रख कर वह सोफे पर धम्म से बैठ गयी।
....फ्लैट पर कोई हो तो होगा न! ...पिता की मौत के बाद मां व छोटी बहन की जिम्मेदारी... कस्बे से शहर में नौकरी... सुबह से शाम वही रूटीन... सोचने का समय ही नहीं मिला... तभी दरवाजे की घंटी से उसकी तंद्रा भंग हुई। काशीबाई आई थी।
वॉश बेसिन पर पहुंच आंखों पर छींटे मारते हुए काशी को चाय के लिए कहा और मां का खत खोला। पत्र खोलते ही मां की आड़ी-तिरछी लाइनें उसे स्पष्ट हो उठीं।
...लुधियाना से रिश्ता आया है। विधुर है, बहुत बड़ी उम्र का नहीं है। अब भी सोच लो लाडो! पूरी जिंदगी सामने पड़ी है तेरी। कौन करेगा तेरा...?
कितनी बार कहा है मां को ‘अब और नहीं।’ उस समय नहीं सोचा शादी का तो अब क्या ?
वह उठी और कुछ सोचकर मेज पर जा बैठी पत्र लिखने...
‘मां! बस अब और नहीं। क्या मैं इसी लायक हूं? अब शादी नहीं करूंगी। यह मेरा निश्चय है। हां, सुरेखा की शादी समय से होगी। पढ़-लिख गयी है। नौकरी भी करने लगी है। उसके लिए एक अच्छा-सा रिश्ता ढूंढ़ो। बस...।’
खिड़की के पार बिछे विशाल लॉन में लगे बरगद के पत्ते मुरझाने लगे थे।
उसकी उम्र चालीस पार कर रही थी।