जो प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय
सुदर्शन
जीव परमात्मा का सनातन अंश है। यदि हम अपने जीवन में धर्म, चेतना, ज्ञान, प्रकाश, आनन्द, प्रेम और ईश्वरीय स्वरूप को लेकर चलते हैं तो हमें भगवान का समीप्य और भगवतकृपा की प्राप्ति होती है। परन्तु जब हम काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, धन, बल, पद की खुमारी स्वीकार करते हैं तो हम भगवत प्रेम के आनन्द से विमुख होकर जड़ता की ओर अग्रसर होते हैं।
प्रभुता का अर्थ है सामर्थ्य और शक्ति सम्पन्न होना जैसे कि प्रभु। जो व्यक्ति धन, बल, अधिकार, एेश्वर्य सम्पन्न हो उसे प्रभु कहा जाता है। प्रभुता प्रभु की भाववाचक संज्ञा है। यौवन, धन-सम्पति, प्रभुता और अज्ञानता इनमें से अनर्थ के लिए एक ही बहुत है, परन्तु जहां चारों का साम्राज्य हो वहां केवल अनर्थ ही अनर्थ। प्रभुता की प्राप्ति के लिए तो सभी तत्पर हैं, पर उस प्रभुता प्रदान करने वाले प्रभु को याद नहीं किया जाता। यदि कोई निष्कपट मन से प्रभु को याद करे तो प्रभुता उसकी गुलामी करती है। लक्ष्मी प्राप्त करने की होड़ तो है पर उस लक्ष्मीपति (भगवान) की याद नहीं। इस सम्बन्ध में कबीर जी ने लिखा : -
प्रभुता को सब कोई भजे, प्रभु को भजे न कोय।
जो नर प्रभु को ही भजे, प्रभुता चेरी होय॥
प्रभुता पनपने के कई कारण हैं, परन्तु सबसे बड़ा कारण धन को ही माना गया है। जिसके पास असीम धन है उसे धनवान, सेठ या बड़ा आदमी जैसे अलंकारों से सुशोभित किया जाता है। यदि इस धन को परमार्थ के लिए उपयोग किया जाए तो उत्तम। यदि धन से आदमी अभिमान ग्रस्त हो जाये तो उसका बड़प्पन असदगुणाश्रित हो जाता है। शायद ही कोई ऐसा प्राणी होगा जिसे प्रभुता का नशा न चढ़ा हो क्योंकि इस नशे के आगे सब नशे बेरंग हैं। सो धन के कारण उत्पन्न मद को कविवर बिहारी इस प्रकार वर्णन करते हैं :-
कनक कनक ते सौ गुणी मादकता अधिकाय।
या खाये बौरात है या पाये बौराय॥
अर्थात् धतूरे में धन से सौ गुणा अधिक नशा होता है। धतूरे का नशा तो धतूरा का पान करने से चढ़ता है परन्तु मनुष्य तो धन की प्राप्ति से ही उन्मादित हो जाता है। पांव जमीन पर नहीं रहते, गर्दन अकड़ जाती है, सीना फूल कर दुगना हो जाता है, किसी के अभिवादन का उत्तर नहीं दिया जाता। सर्वज्ञ अपना ही प्रतिबिम्ब दिखता है। धन की मादकता आंखों में चमक और बुढ़ापे में जवानी का अहसास कराती है। कहां तक बतायें कुरूपता में भी सौन्दर्य छलकने लगता है।
यह बात नहीं कि प्रभुता पाकर सभी उन्मादित हो जाते हैं। कुछ ऐसे भी मिलेगें जो यह सब पाकर भी इस मद से अछूते रहते हैं। वह प्रभुता की भक्ति न करके उस प्रभु की भक्ति में लीन रहते हैं जिससे उन्हें यह प्रभुता प्राप्त हुई। ऐसे व्यक्तियों के विषय में कवि रहीम का कहना है :-
जेही विषया सन्तन तजी, मूढ़ तहि लिपटात।
जो नर डारत वमन करी, श्वान स्वाद से खात॥
अर्थात् जिन विषय-विकारों को सन्त-महात्मा तृण तुल्य समझ कर त्याग देते हैं, मनुष्य उन्हें आनन्द और प्रेम से अपनाता है। जब श्रीराम भगवान को पता चला कि उनका राज्याभिषेक होना है तो उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त नहीं कि और जब भरत को राम द्वारा छोड़ा राज्य मिला तो उन्हें राज्य का मद नहीं हुआ, उल्टा संन्यासियों की तरह जीवन व्यतीत किया। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि महात्माओं और पुण्यात्माओं पर यह पद हावी नहीं होता। यह प्रभुता पाकर भी सहज और शान्त रहते हैं। इसलिए तुलसीदास जी ने साधारण जनता को ध्यान में रखते हुए ठीक ही लिखा है :-
प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।