लोकतंत्र की कसौटी पर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’
शशि थरूर
कांग्रेस सांसद
भारतीय लोकतंत्र की गरिमा बचाने वाला एक अनुग्रह है- हालांकि कुछ लोगों के लिए यह भारत की सबसे अधिक परेशान करने वाली खामियों में एक होगा – कि व्यावहारिक रूप से यहां सदा कोई न कोई चुनाव चलता रहता है। इसलिए, पिछले आम चुनाव की गूंज जैसे ही खत्म हुई - जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पद पर तो बनाए रखा, लेकिन बहुमत के बिना और गठबंधन सरकार के नेतृत्व के साथ– जल्द ही हरियाणा राज्य और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हुआ। जिसके पिछले सप्ताह घोषित परिणामों ने राजनेताओं और चुनाव विशेषज्ञों, दोनों को चौंका दिया।
हरियाणा में मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अप्रत्याशित जीत हासिल की, जहां पर उसकी हार की उम्मीद बताई जा रही थी। वहीं जम्मू-कश्मीर में विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने अपने क्षेत्रीय सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ मिलकर जीत पाई, जबकि वहां पर चुनावों में किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत न मिलने के कारण त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की गई थी। जून के लोकसभा चुनाव में भी चुनाव पंडितों के कयास गलत निकले थे - उन्होंने भाजपा की तगड़ी जीत का अनुमान लगाया था – निश्चित रूप से भारत के मतदाता का अंदाज़ा पहले से नहीं लगाया जा सकता।
अपेक्षाओं को धता बताने के और अधिक मौके भारतीय मतदाताओं को शीघ्र ही मिलने जा रहे हैं। साल खत्म होने से पहले और दो राज्यों -महाराष्ट्र और झारखंड - में चुनाव होने जा रहे हैं। उनके बाद नंबर दिल्ली का होगा, जिसके संकटग्रस्त मुख्यमंत्री ने हाल ही में इस्तीफा देकर समय से पहले चुनाव कराने की मांग की है (जो वैसे भी अगले मार्च तक होने हैं)। दूसरे शब्दों में, चुनाव एक साथ होने के बजाय - भारत के 28 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से हर कोई अपनी सरकारें चुनता है - भारत का यह चुनावी पंचांग अब बदलने की बात हो रही है।
मोदी सरकार के लिए, यह सारी चुनाव से संबंधित अनिश्चितता बहुत दूर निकल चुकी है। वह चाहते हैं कि भारत एक निश्चित चुनावी कार्यक्रम स्थापित करे, जिसके अंतर्गत लोकसभा (संसद का निचला सदन), राज्यों की विधानसभाओं और स्थानीय निकायों, सभी के लिए हर पांच साल में एक ही तारीख को मतदान हो। पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्च-स्तरीय समिति ने हाल ही में इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए एक बृहद रिपोर्ट तैयार की, जिसे पीएम मोदी ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का नाम दिया है।
चुनावों की बारम्बारता वास्तव में किसी राष्ट्रीय सरकार के लिए एक चुनौती है। मसलन, जहां राज्य व स्थानीय चुनावों में अधिकांशतः स्थानीय मुद्दे प्रभावी होते हैं और अक्सर इन्हें राष्ट्रीय सरकार पर एक प्रकार के जनमत संग्रह के रूप में देखा जाता है। दूसरी ओर, स्वतंत्र चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता के कारण चुनाव के दौरान शासन व्यवस्था ठप हो जाती है, ताकि कार्यकारी सरकार ऐसी नीतिगत घोषणाएं न करने पाए, जिससे कि मतदाता उनके पक्ष में मतदान करने के लिए प्रभावित हो। इसके अलावा, राष्ट्रीय नेता चुनाव वाले राज्यों में प्रचार करने में व्यस्त हो जाते हैं, जिनमें से प्रत्येक का अपना राजनीतिक इतिहास होता है और अक्सर, उनकी अपनी पार्टियां भी। पीएम मोदी और उनके गृह मंत्री अमित शाह अपने दस वर्षीय कार्यकाल के दौरान अंतहीन चुनावी अभियान में व्यस्त रहे, जिससे कि उनके अपने आधिकारिक कर्तव्यों के लिए बहुत कम समय बचा। प्रधानमंत्री मोदी की दलील है कि बार-बार चुनाव कराने से पैसा और समय दोनों बर्बाद होते हैं। हो सकता है उन्हें यह विचार भी आया होगा कि एक साथ चुनाव करवाने पर राष्ट्रीय पार्टियों और मुद्दों का फायदा राज्य चुनावों में मिल सकता है, ताकि राष्ट्र व्यापी चुनाव प्रचार में स्थानीय नेताओं और समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की संभावना कम ही रहे।
विपक्ष इस प्रस्तावित सुधार को खारिज करता है, यह इंगित करते हुए कि सभी चुनाव एक साथ करवाने पर खर्च में जो भी मामूली बचत हो पाएगी, उसके बरक्स,चुनाव अभियानों में जिस प्रकार बड़े पैमाने पर पैसा लगाए जाने से आर्थिकी को प्रोत्साहन मिलता है, उससे वंचित होने का नुकसान होगा। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह प्रस्ताव भारत के संघीय स्वरूप और विविधता को कुचलने का मंसूबा दर्शाता है, जोकि मोदी के एकात्मकवाद के प्रति लगाव को कार्यकुशलता के रूप में पेश करता है।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह अव्यावहारिक है, जिसको हम अपने अनुभवों से जानते हैं। स्वतंत्रता उपरांत, भारत ने एक ही तारीख पर चुनाव करवाने वाली व्यवस्था कायम की थी। लेकिन यह व्यवस्था 1952 से 1967 तक, केवल पंद्रह वर्षों तक चल पाई। इसकी वजह भारत की संसदीय प्रणाली के मूल में निहित है: सरकारों के लिए विधायी बहुमत बनाए रखना जरूरी है। यदि कोई सरकार अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले बहुमत खो देती है, तो नए चुनाव होने चाहिए। हो सकता है कोई सरकार अपना बहुमत बढ़ाने की इच्छा से समय पूर्व चुनाव करवाने के लिए कहे।
यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर हो गुजरा है,और राष्ट्रीय स्तर पर भी अनेक बार हुआ है और आगे भी होता रहेगा, खासकर कई राज्यों में गठबंधन सरकार होने के काऱण। भारतीय राज्य अपनी लय पर चलते हैं, जोकि दिल्ली में संघीय प्रणाली का ढोल बजाने वालों से बहुत अलहदा है। एक राष्ट्रीय गठबंधन सरकार, जैसी वर्तमान में मोदी के नेतृत्व वाली है, वह भी गिर सकती है। तब क्या? निश्चित ही, किसी सरकार के लिए नए सिरे से चुनावी जनादेश प्राप्त किए बिना सत्ता में बने रहना अलोकतांत्रिक होगा। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार तभी अर्थपूर्ण हो सकता हैजब मुख्य कार्यकारी सीधे चुने जाएं ताकि उनका जनादेश विधायी बहुमत पर आधारित न हो - दूसरे शब्दों में, राष्ट्रपति प्रणाली। और, वास्तव में, भारत में राज्यों और यहां तक कि संघीय स्तर पर भी ऐसी व्यवस्था बनाने लिए विमर्श चलाया जा सकता है, लेकिन मोदी ऐसा नहीं कर रहे।
भारत के लोकतंत्रवादियों को लंबे समय से विश्वास है कि राष्ट्रपति प्रणाली तानाशाही को बढ़ावा देगी, और इसीलिए इसका विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन संसदीय प्रणाली ने अपनी किस्म की निरंकुशता बनाई है, क्योंकि अति आत्मविश्वासी कार्यपालिका ने विधायी बहुमत को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। राष्ट्रपति प्रणाली में, कार्यपालिका एक स्वतंत्र विधायिका के प्रति जवाबदेह होगी,यह विधायिका को नोटिस बोर्ड और रबर की मुहर के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकती, जैसा कि भाजपा एक दशक से कर रही है।
लेकिन यह विचार अभी केवल एक सोच भर है, और भारत की संसदीय प्रणाली के अंतर्गत, ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ किसी काम का नहीं है। हर प्रकार से,जिस आखिरी चीज की आवश्यकता भारतीय लोकतंत्र को है, वह है कुछ चुनाव होते रहना, वह एकमात्र व्यवस्था जिसके जरिए हम -भारतीय जनता- सरकार की अति महत्वाकांक्षाओं के खिलाफ अपना मत दे सकते हैं। यह ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव को मूलतः अलोकतांत्रिक बनाता है।
बहरहाल, हमें आगामी महीनों में होने वाले दो या तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों का स्वागत करना चाहिए। शायद, भारतीय मतदाता अपने ‘राजनीतिक आकाओं’ को फिर से कुछ और चौंकाएंगे।
साभार : प्रोजेक्ट सिंडीकेट 2024