एकदा
एक बार राजा पुरुरवा ब्रह्माजी के पौत्र महर्षि कश्यप से राजधर्म का उपदेश लेने पहुंचे। महर्षि को पता था कि एक दुर्व्यसनी को सलाहकार बनाने के कारण पुरुरवा की प्रजा दुखी है। महर्षि कश्यप ने राजा से कहा, ‘राजा को स्वयं पूर्ण सदाचारी व धर्मपरायण होना चाहिए। साथ ही प्रधानमंत्री व मंत्री ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए, जो नैतिक गुणों से संपन्न हो।’ राजा पुरुरवा ने प्रश्न किया, ‘भगवन, पृथ्वी तो पापियों और पुण्यात्माओं को समान रूप से धारण करती है। सूर्य बुरे-भले को समान ऊर्जा देते हैं। वायु और जल भी बुरे और भले दोनों का पोषण करते हैं, तो फिर कर्मफल में अंतर कैसे पड़ा?’ महर्षि ने कहा, ‘राजन, मां अपने दो पुत्रों को अपना एक-सा दूध पिलाकर पुष्ट करती है, लेकिन आगे चलकर एक पुत्र संतजनों और अच्छे लोगों का सत्संग कर सत्कर्म करता है और ख्याति प्राप्त करता है। वहीं दूसरा कुसंग में पड़कर दुर्व्यसनी बनकर अपराधों में लिप्त हो जाता है। इसलिए कुसंगी, दुर्व्यसनी से दूर रहना और सद्पुरुषों का संग करना बहुत आवश्यक है।’ राजा की जिज्ञासा शांत हो गई। उसने प्रजा की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी