एकदा
एक रसदार फलों का वृक्ष था। जब उस पर फल आते तो लोग वृक्ष के नीचे तथा उसके पास पड़े पत्थरों से फल तोड़कर ले जाते। इससे वृक्ष प्राय: जख्मी हो जाता। एक दिन उसने पत्थर से कहा, ‘भाई, हमारी-तुम्हारी कोई शत्रुता नहीं है, फिर तुम मनुष्य के हाथों मुझे क्यों मारते हो? इससे तुम्हें कोई लाभ भी नहीं है क्योंकि तुम्हारे जरिए तोड़े गए सारे फल मनुष्य ले जाता है।’ पत्थर बोला, ‘देखो भाई! मैं सदा धरती पर ऐसे पड़ा-पड़ा ठोकर खाकर दुखी होता रहता हूं और फिर भी तुम्हारे फलों से लदे स्वरूप को सदा निहारता हूं, पर तुम कभी भी मेरी तरफ देखना पसंद नहीं करते। सो, न तुम मेरे दुख को समझते हो और न मेरे अस्तित्व को ही पहचानते हो। अतः आदमी फल तोड़ते समय मुझे मौका देता है कि मैं तुम्हें अपने अस्तित्व से परिचित कराऊं, तब मुझे खुशी होती है क्योंकि वह मुझे फल तोड़ने का माध्यम बनाता है। इससे मनुष्य को फल और मुझे संतोष तथा तृप्ति मिलती है।’ पास खड़े मनुष्य ने जब इन दोनों की बात सुनी तो वह खुश हो गया। उसने मन ही मन निश्चय किया कि पत्थर और पेड़ का विवाद मिटने नहीं देना है क्योंकि जब तक यह रहेगा तब तक मुझे खाने को फल मिलते रहेंगे। प्रस्तुति : राजकिशन नैन