एकदा
अठारहवीं सदी की महिला संत सहजोबाई की गुरुनिष्ठा अटूट थी। वह चरणदासी सम्प्रदाय के संस्थापक संत चरणदास जी की शिष्या थीं। सहजोबाई की गुरु भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं नारायण उसकी कुटिया पर पहुंचे। वह चौंकी, ‘नारायण आप!’ ‘हां सहजो, मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूं। इसलिए स्वयं दर्शन देने आया हूं।’ भगवान ने कहा। ‘प्रभु आपने दर्शन देकर बड़ी कृपा की। परन्तु मैंने तो आपके दर्शन की कभी कामना ही नहीं की।’ सहजो ने बड़ी सरलता से कहा। भगवान मुस्कुराये, ‘सहजो ऐसा तेरे पास क्या है, जो तू मेरे दर्शन की अभिलाषी नहीं है।’ सहजो ने कहा, ‘मेरे पास मेरा सद्गुरु पूर्ण समर्थ है। नारायण! मैंने आपको अपने सद्गुरु में पा लिया है। मुझे जब भी परमात्म तत्व का दर्शन करना होता है, अपने सद्गुरु के रूप में कर लेती हूं।’ ‘तुम धन्य हो सहजो! ईश्वरीय प्रेम अत्यंत दुर्लभ है। वह केवल सद्गुरु के आगे पूर्ण समर्पण से ही मिलता है। जिस शिष्य को अपने सद्गुरु से तुम जैसी प्रीति हो, तुम्हारे जैसी आस्था और विश्वास हो अपने सद्गुरु पर उनके लिए परमात्मा का साक्षात्कार कुछ भी दुर्लभ नहीं है।’
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा