एकदा
एक बार जापान के सन्त हाकुइन के पास एक सैनिक आया और उसने प्रश्न किया, ‘महाराज! स्वर्ग और नरक अस्तित्व में है या केवल उनका हौवा बना दिया गया है?’ हाकुइन ने उसकी ओर एकटक देखकर पूछा, ‘तुम्हारा पेशा क्या है?’ ‘जी, मैं सिपाही हूं।’ सन्त ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘क्या कहा, तुम सिपाही हो! मगर चेहरे से तो तुम कोई भिखारी मालूम होते हो! तुम्हें जिसने भर्ती किया है, वह निश्चय ही कोई मूर्ख होगा।’ यह सुनते ही वह सैनिक आगबबूला हो गया। उसका हाथ तलवार की ओर गया। यह देख हाकुइन बोले, ‘अच्छा! तुम साथ में तलवार भी रखते हो! मगर इसकी धार पैनी नहीं मालूम पड़ती, फिर इससे मेरा सिर कैसे उड़ा पाओगे?’ इन शब्दों ने उसकी क्रोधग्नि में घी का काम किया। उसने झट से म्यान से तलवार खींच ली। तब सन्त बोले, ‘लो, नरक के द्वार खुल गये।’ सन्त के शब्द उसके कानों तक पहुंच भी न पाये थे कि उसने महसूस किया कि सामने तलवार देखकर भी यह साधु शान्त बैठा हुआ है। उसकी क्रोधाग्नि एकदम शांत हो गयी। उनका आत्मसंयम देख उसने तलवार म्यान में रख दी। तब सन्त बोले, ‘लो, अब स्वर्ग के द्वार खुल गये।’
प्रस्तुति : कृष्ण कुमार