For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

एकदा

08:37 AM Apr 13, 2024 IST
एकदा
Advertisement

चोरी का प्रायश्चित

शंख और लिखित दोनों भाई ऋषि थे। शंख बड़े थे। एक बार लिखित भाई से मिलने उनके आश्रम में गए। तब, शंख कहीं बाहर गए हुए थे। लिखित पेड़ पर एक पका हुआ फल देख उसे तोड़कर खाने लगे। तभी शंख आ गए। शंख ने कहा, ‘यह फल तुमने कहां से लिया?’ लिखित बोला, ‘इसी वृक्ष से।’ ‘यह पेड़ तो मेरा है, मुझसे बिना पूछे तुमने यह फल क्यों लिया? तुमने चोरी की है, तुम चोर हो।’ ‘तब आप मुझे दंड दीजिए।’ लिखित ने कहा। ‘दंड राजा से जाकर मांगो।’ शंख बोला। लिखित राजा सुधनवा के पास पहुंचा। ऋषि को आया देख राजा सिंहासन छोड़, उनका स्वागत करने द्वार तक आए और हाथ जोड़कर बोले, ‘आइये महात्मन, अहो भाग्य। आज्ञा कीजिए।’ लिखित ने कहा, ‘राजन, मैंने चोरी की है, मुझे दंड दीजिए।’ राजा ने पूछा तो लिखित में सारा हाल कह सुनाया। यह सुन राजा बोला, ‘ऋषिवर, जैसे मुझे दंड देने का अधिकार है, वैसे ही अभियोग सुनकर क्षमा करने का भी हक है। मैंने आपको माफ किया।’ राजा का उत्तर सुन लिखित ने कहा, ‘राजन, आप क्षमा के अधिकारी नहीं, आप मर्यादा और नीति-न्याय के विपरीत काम करेंगे तो धर्म-नाश होगा तथा प्रजा-पालन में बाधा आएगी। शंख ने मुझे धर्म से चोर कहा है, उनका कथन त्रिकाल में भी असत्य नहीं हो सकता। अतः आप मुझे दंड दें।’ राजा ने विधि अनुसार लिखित के दोनों हाथ कटवा दिये। हाथ कटवाकर लिखित शंख के पास गए और दोनों कटे हाथ दिखाकर बोले, ‘बड़े भाई, राजा ने मुझे दंड दे दिया, अब आप भी मेरा अपराध क्षमा करें।’

प्रस्तुति : राजकिशन नैन

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×