एकदा
महान दार्शनिक सुकरात ने जीवनपर्यंत कहे को जिया। वे देश के युवाओं को प्रगतिशील व ईमानदार सोच के लिए पाठ पढ़ाया करते थे। उन्होंने देश के युवाओं को पाखंड व अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा दी। वे युवाओं के आदर्श बनकर उभरे। लेकिन देश के हुकमरानों को यह रास नहीं आ रहा था। उन्होंने झूठे मुकदमे चलाकर उनका दमन करना चाहा। शुभचिंतकों ने उनसे शहर छोड़कर जाने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि मैं अपने शब्दों को जीना चाहता हूं। मैं भागा तो उन युवकों में गलत संदेश जाएगा। सुकरात निर्भय होकर न्यायालय में उपस्थित हुए। उनसे कहा गया कि वे माफी मांग लें। लेकिन उन्होंने अन्याय के सामने झुकने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि मेरी फिक्र उन लोगों को करनी चाहिए कि जिनको मेरे न रहने से हानि होगी। मेरा जीवन तो दूसरों के लिए है। सुकरात को मृत्युदंड दिया गया। उनके शुभचिंतकों ने उन्हें जेल से भागने में मदद करने की बात कही। उन्होंने कहा मैं भागकर अपने अनुयायियों के सामने गलत उदाहरण प्रस्तुत नहीं करूंगा। जब उन्हें मृत्युदंड के रूप में विष का प्याला दिया गया तो उनके चेहरे पर भय की लकीर भी नहीं थी। वे शांति व धैर्य से उपदेश देते रहे। मरने के बाद भी उनके चेहरे पर शांति थी, लेकिन पूरा यूनान रो रहा था।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा