एकदा
आचार्य चतुरसेन शास्त्री एक बार त्रिवेणी स्नान को गए। जब वे नहाने लगे तो एक पंडा उनके पास आकर बोला- दूध चढ़ाइए महाराज! शास्त्री जी ने कहा- इससे क्या लाभ होगा?
‘पुण्य होगा- गंगा में दूध चढ़ाना हिंदू धर्म है।’ वे बोले- चढ़ा दो! पंडे ने पूछा- कितना दूध यजमान! उन्होंने कहा- लोटे में है ही कितना, सारा चढ़ा दो। पंडे ने सारा दूध गंगा में बहा दिया और घाट पर बैठकर शास्त्री जी बाट जोहने लगा। शास्त्री जी जब नहा कर चलने लगे तो पंडा बोला- ‘पैसे दीजिए यजमान?’ ‘पैसे कैसे?’
‘दूध चढ़ाया था न।’ ‘फिर क्या बुरा किया?’‘ओहो! आप पैसे दीजिए।’ ‘पैसे क्यूँ दूँ?’
‘आपके कहने से दूध चढ़ाया है।’ ‘भले आदमी पुण्य ही तो किया? हर्ज क्या है?’ ‘मैंने आपके नाम का दूध चढ़ाया है।’ ‘तुमने अपने नाम का क्यों नहीं चढ़ाया?‘ ‘यदि तुम चढ़ाओ तो तुम्हें पुण्य नहीं होगा?’ ‘होगा क्यों नहीं।’
‘तो फिर पुण्य लूटो। क्या पैसे पुण्य से भी बढ़कर हैं?’ यह कहकर शास्त्री जी चल दिए। पंडा उनके पीछे दौड़ा और बोला- ‘महाराज, पुण्य आप लीजिए, मुझे तो पैसे दीजिए।’ ‘क्यों, क्या पुण्य से तुम्हारा पेट भर गया है?’ इतना कह वे आगे बढ़ गए।
-प्रस्तुति : राजकिशन नैन