एकदा
वासव नामक भिक्षु बुद्ध का प्रिय शिष्य था। बुद्ध उसे प्रचार प्रसार के लिए दूर दराज के गांवों में भेजा करते थे। एक बार वासव बीमार पड़ा। उसे लगा,वह अब नहीं बचेगा। उसने अपने एक साथी भिक्षु द्वारा इच्छा प्रकट की कि वह अपने अंतिम समय में भगवान को अपने सम्मुख देखना चाहता है। वासव की अंतिम इच्छा का विवरण बुद्ध को सुनाया गया तो बुद्ध उसकी इच्छापूर्ति हेतु उससे मिलने चले आए। बुद्ध को ससंघ अपने समीप आते देख कर वासव उठने की चेष्टा करने लगा ताकि बुद्ध को उचित आसन प्रदान कर सके। बुद्ध उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे रोकते हुए उसके समीप बिछे आसन पर बैठ गए। वासव हर्षित स्वर में बोला- भगवन, आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी, जिसे आपने कृपापूर्वक पूरा कर दिया है। बुद्ध बाेले, ‘शांत वासव, जैसी तुम्हारी काया है, वैसी ही मेरी भी काया है। अगर तुम मुझमें धर्म को देखते हो तो धर्म को ही देखो। तुम व्यर्थ में मेरी काया को देखने की आस में बैठे थे। मैं कहीं भी होता, तुम स्मरण करते तो मैं तुम्हारे पास ही होता। याद रखो, इंसान अपने विचारों और कर्मों से ही महान बनता है। हमें भी इस काया के मोह से दूर ही रहना चाहिए।’ प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी