एकदा
रामानुज प्रतिदिन मंदिर की परिक्रमा करते और नदी किनारे बैठकर भगवान की साधना में घंटों लीन रहते थे। एक दिन वे मंदिर पहुंचे और तमिल में रचा गया भगवद्भजन गाते-गाते उसकी परिक्रमा में लग गए। अचानक मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक महिला उनके सामने आ गई। रामानुज का अहंकार उन पर हावी हो गया। उन्हें लगा कि यह महिला बिना नहाए-धोए आई होगी। वे क्रोध में भरकर बोले, ‘पवित्र मार्ग को क्यों अपवित्र कर रही हो? दूर हटो यहां से।’ महिला ठिठककर खड़ी हो गई। धीरे से उसने कहा, ‘आप पवित्र हैं, भगवान का यह मंदिर पवित्र है, भक्तों के चरणों के कारण इस मार्ग की धूल भी पवित्र हो गई है, फिर मैं अपनी अपवित्रता लेकर कहां जाऊं, आप ही बताएं?’ महिला के शब्दों ने रामानुज को झकझोर डाला। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, ‘मां तू ठीक कहती है। वास्तव में मैंने तुझ जैसी निश्छल स्त्री को अपवित्र कहकर घोर अधर्म किया है। मैं तेरी भक्ति की पवित्रता को नहीं पहचान पाया। तूने तो मेरे मन व हृदय की अपवित्रता ही दूर कर दी। मुझे माफ कर दो।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी