एकदा
अंडमान के क्रांतिकारी कैदी त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती ने अपनी ‘जेलों में तीस साल’ नामक पुस्तक में पंजाबी सिखों की तगड़ी काया और उनकी खुराक के बारे में एक रोचक और मानवीय प्रसंग लिखा है। सेल्युलर जेल में सबसे ज्यादा संख्या पंजाब के ऐसे गबरुओं की थी, जिनमें से प्रत्येक का वजन दो सौ अथवा ढाई सौ पौण्ड से ज्यादा था। जेल में मिलने वाले भोजन से उनका पेट नहीं भरता था। उन लोगों के लिए ही वह खुराक कम पड़ती थी। जेल में आने के बाद उन सबका वजन चालीस से पचास पौण्ड तक घट गया था। लोग भाई ज्वालासिंह को ‘भाई डोल’ और शेरसिंह को ‘भाई हाथी’ कहकर पुकारते थे। एक दिन अस्पताल में डॉक्टर ने शेरसिंह को एक बाल्टी दूध देकर पूछा, ‘क्या तुम इसे पी सकते हो?’ बाल्टी में दस सेर दूध था। शेरसिंह उसे फौरन पी गए। डॉक्टर यह देख हतप्रभ रह गया। इन्हीं शेरसिंह ने एक दिन एक सेर सरसों का कच्चा तेल पीकर हजम कर लिया था। हुआ यों कि फणि बाबू ने तम्बाकू के दो पत्ते चबाकर मुझे कहा कि, ‘कहीं से एक सेर तेल प्राप्त करो।’ मैंने इसके लिए कोल्हूघर के किसी कैदी से तेल का बंदोबस्त किया, पर तेल लाते समय जेलर टिण्डेल ने मुझे माल सहित पकड़ लिया। इतने में वहां संयोग से शेरसिंह आ गए। उन्होंने टिण्डेल को जनाब कहकर बड़े प्रेम से पूछा कि, ‘मामला क्या है?’ टिण्डेल ने कहा, ‘इस बंगाली ने तेल चुराया है।’ यह सुनकर शेरसिंह बोला, ‘अच्छा! यह बात है? बहुत ही बुरी बात की है। जरा देखाओ तो कितना तेल है?’ यह कहकर उसने जेलर के हाथ से झपटकर सारा तेल पी लिया और जेलर से बोले, ‘ले साले, अब कर ले, जो तूने करना है!’ टिण्डेल गुस्से में कसमसाकर रह गया। न माल रहा न सबूत। प्रस्तुति : राजकिशन नैन