एकदा
श्रीराम ने राज्याभिषेक के बाद गुरुदेव वशिष्ठ के सान्निध्य में एक सभा का आयोजन किया, जिसमें अयोध्यावासी भी सम्मिलित हुए। यह संगोष्ठी धर्म और सदाचार की शिक्षा देने के लिए रखी गई थी, जिसमें मानव जन्म को सफल बनाने पर बल देते हुए सभी को धर्म और सदाचार का पालन करने की प्रेरणा दी गई। श्रीराम ने कहा, ‘धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मानव शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो व्यक्ति प्रत्येक क्षण को सद्कर्मों में नहीं लगाता, वह अंत में घोर दुख पाता है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘ज्ञान अगम है और उसकी प्राप्ति में अनेक बाधाएं आती हैं। भक्ति सरल स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है। प्राणी संतों और सद्पुरुषों के सत्संग से ही भक्ति की ओर उन्मुख होता है। अतः अहंकार त्यागकर विनयपूर्वक भगवान की भक्ति में रत होना चाहिए। इसके लिए यज्ञ, जप-तप और उपवास की भी आवश्यकता नहीं है। सरल, स्वभाव और मन में कुटिलता का त्याग करने वाला संतोषी व्यक्ति भक्ति के माध्यम से अपना जीवन सफल बना सकता है। जो फल की इच्छा किए बगैर कर्म करता है, जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो मुक्ति को भी तृण के समान समझता है, वह परम अनूठा सुख प्राप्त करता है। ऐसा भक्त मुझे सर्वप्रिय है।’ प्रस्तुति : मुकेश ऋषि