एकदा
विवेक दृष्टि
एक संत धर्म प्रचारार्थ कहीं जा रहे थे। उन्होंने रास्ते में देखा कि एक युवक किसी युवती के साथ छेड़खानी कर रहा है। संत वहीं रुक गए। युवक को समझाते हुए बोले, ‘किसी भी युवती के साथ ऐसा व्यवहार करना अशोभनीय व पाप कर्म है।’ उन्होंने युवक के चेहरे पर और ध्यान से दृष्टि गड़ाई, तो उन्हें याद आ गया कि यह तो वही युवक है, जिसे उन्होंने आंखों के अंधेपन से मुक्ति दिलाई थी। संत जी को अपनी ओर निहारते देखकर युवक भी उन्हें पहचान गया। युवक उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘महाराज! मैं वही हूं, जिसे आपने आंखों की ज्योति दिलाई थी। यदि मुझे नेत्र दृष्टि के साथ-साथ विवेक दृष्टि भी मिल जाती तो मैं इस पाप-कर्म की ओर उद्यत कदापि नहीं होता।’ संतजी ने उसी समय संकल्प ले लिया कि वे मरीजों की सहायता करने के साथ-साथ उन्हें धर्म मार्ग पर चलने, संयम व सादगी का जीवन जीने का उपदेश भी देते रहेंगे।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा