एकदा
बंबई के हीरा व्यापारी रायचंद का वहीं के एक अन्य जवाहरात कारोबारी जगराम से हीरे खरीदने का अनुबंध हुआ था। जगराम को तय तारीख तक माल देना था। यकायक हीरों के दाम आसमान छूने लगे। कागज पर लिखा-पढ़ी हो गई थी। जगराम की दशा चढ़ गई। घर व दुकान बेचकर भी वह रायचंद का माल नहीं पुगा सकता था। रायचंद से भी उसकी हालत छिपी नहीं रही। कोई ओछा व्यापारी होता तो सोचता कि करोड़पति बनने का मौका हाथ लगा है। लेकिन रायचंद धीर पुरुष था। वह जगराम की चिंता मिटाने के लिए खुद उसके ठिकाने पर पहुंचा। रायचंद को देखते ही जगराम फट गद्दी छोड़कर नीचे आया और हाथ जोड़कर घिघियाता हुआ बोला, ‘लालाजी! खुद को बेच कर भी मैं अपना प्रण पूरा करूंगा। विश्वास रखें।’ रायचंद ने उसका हाथ थाम उसे गद्दी पर बिठाकर कहा, ‘भाई जी, रायचंद दूध पीने का आदी है, किसी का खून नहीं। कागज पर हमारा जो सौदा हुआ है, वह आत्मा के संबंध से बड़ा नहीं है।’ यह कहते हुए रायचंद ने अनुबंध वाले कागज के टुकड़े-टुकड़े करके जगराम के हाथ में थमा दिये। जगराम की आंखों से झर-झर पानी बहने लगा। प्रस्तुति : राजकिशन नैन