एकदा
अरविंद घोष के जीवन में एक समय ऐसा आया कि वे रुपये-पैसों के प्रति निरासक्त से हो गये थे। तीन महीने में एक बार वेतन मिलता और घर आते ही सारी की सारी थैली वे अपने कमरे में रखी ट्रे में उड़ेल देते। ट्रे कमरे में ही रखी रहती थी। आवश्यकतानुसार खर्च के लिए पैसे उठाये और बाकी वहीं खुली ट्रे में। कोई तिजोरी-ताला न देखकर उनके एक मित्र ने प्रश्न किया, ‘आप रुपयों की ट्रे को ऐसे ही रखते हैं, कोई चोरी का भी डर नहीं है आपको?’ अरविन्द घोष हंसकर बोले, ‘ईमानदार व्यक्तियों के बीच रहता हूं।’ पुनः प्रश्न किया, ‘आप हिसाब तो रखते नहीं, तो कैसे कह सकते हैं कि आपके पास के व्यक्ति भले और ईमानदार हैं?’ घोष ने उत्तर में कहा, ‘मेरा हिसाब भगवान रखते हैं, वह मुझे उतना ही देते हैं जितने कि मुझे आवश्यकता होती है, तो फिर हिसाब के पीछे क्यों सिर खपाई की जाये।’ अरविन्द घोष का उत्तर सुन वह मित्र घोष के विश्वास की पराकाष्ठा पर आश्चर्यचकित तो था ही, उसने भी भगवान पर इस स्तर का विश्वास करना सीख लिया। प्रस्तुति : बनीसिंह जांगड़ा