एकदा
एक युवक ने संत से पूछा, ‘क्या गरीबी-अमीरी का भी धर्म से कोई सम्बंध है?’ संत ने गंभीर होकर कहा, ‘हां है, ग़रीब आदमी, जिसका पेट ख़ाली है, वह धर्म के सम्बन्ध में सोच नहीं सकता। उसकी पहली ज़रूरत पेट भरना है, धर्म नहीं। जिसका पेट भरा है यानी अमीर आदमी, उसे पता पड़ता है कि पेट तो भरा है, पर कुछ कहीं कोई रिक्तता है, पेट भरे होने पर ही चित्त की रिक्तता दिखाई पड़ती है। यानी सब कुछ उपलब्ध होने पर भी मन अशान्त है, ख़ाली पेट मन की अशांति दिखाई नहीं पड़ सकती। पेट भरे होने पर मन नई नई वासना पैदा करेगा, अमीर आदमी उन्हें पूरी करने की कोशिश करेगा, पर वो जितनी कोशिश वासनाओं की पूर्ति की करेगा, मन और नई वासनाएं खड़ी कर देगा। अमीर आदमी उन्हें भी भरेगा, पर मन तब और अधिक अशान्त हो जायेगा। तब कहीं जाकर उसे जान पड़ेगा कि मन तो शांत होना जानता ही नहीं, तब उसे असली प्यास का पता पड़ेगा कि मन को चाहे कितना ही भर ले पर इससे आत्मा की प्यास को नहीं बुझाया जा सकता। आत्मा की प्यास भौतिक संसाधनों से नहीं भर सकती। आत्मा की ज़रूरत तो धर्म है।’
प्रस्तुति : सुभाष बुड़ावन वाला