एकदा
एक बार एक साधु अपनी कुटिया की ओर जा रहा था। रास्ते में खजूर का बाजार पड़ा। खजूरों को देख साधु का मन खजूर खाने को करने लगा लेकिन उसके पास पैसे नहीं थे। ऐसे में उसे अपने मन को काबू में रखना पड़ा। लेकिन कुटिया पहुंच कर भी खजूर खाने का विचार मन से नहीं गया। रात भर मन विचलित रहा। सुबह उठकर सोचने लगा कि खजूर खाने हैं तो पैसे चाहिए होंगे। पैसे के लिये उसने जंगल से दिनभर लकड़ियां बटोरी, उनका गट्ठर बनाकर बेच आया और खजूर खरीदने लायक पैसा जमा कर खजूर की दुकान पर पहुंचा। सारे पैसे देकर उसने खजूर खरीद लिए। खजूर लेकर वो कुटिया की तरफ चल पड़ा। कुटिया की तरफ जाते-जाते उसके मन में विचार आया कि आज खजूर खाने की इच्छा हुई, कल किसी और चीज की इच्छा होगी। कभी नए कपड़े और कभी नया घर आदि। उसने अपने आप से सवाल किया कि साधु होकर इस तरह इच्छाओं के तले वो कब तक जिएगा? वो कब तक इच्छाओं का दास बना रहेगा? उसने अपने अंदर की आवाज सुनकर सारे खजूर बांटने का फैसला किया। इस तरह वह खुद की इच्छाओं का दास बनने से बच गया।
प्रस्तुति : सुरेन्द्र अग्निहोत्री