एकदा
विद्वत्ता का स्वाभिमान
महाभाष्य की ‘प्रदीप’ नामक टीका के रचयिता आचार्य कैयट कश्मीर निवासी थे। वे अपने समय के प्रकाण्ड विद्वान थे। महाभाष्यान्त पाणिनिकृत व्याकरण उन्हें समग्र कंठस्थ थी और वे शिष्यों को सदैव स्मृति के आधार पर पढ़ाया करते थे। अपने जीवट के बल पर वे कई बार कश्मीर से काशी तक पैदल गए और शास्त्रार्थ में अनेक दिग्गज पण्डितों को हराया था। वे आयुपर्यन्त सपत्नीक जंगल स्थित एक झोपड़ी में रहे। सम्पत्ति के रूप में उनके पास एक टूटी चारपाई, कमंडल और भोजन पकाने के कुछ खण्डित पात्रों के अतिरिक्त कुछ नहीं था। उनकी धर्मपत्नी जंगल से मूंज काटकर, उसे बांट कर रस्सी तैयार करती थी और बाजार में बेचती थी। इसी के सहारे वे जीवन-यापन करते थे। एक बार उनके पांडित्य और दयनीय आर्थिक स्थिति को भांप कर दरबारी पंडित कृष्ण भट्ट ने सोचा कि आचार्य की मदद करनी चाहिए। फलतः वे तत्कालीन कश्मीर नरेश के साथ उनकी कुटिया में गए और उनसे निवेदन किया, ‘आचार्य! राज्य की ओर से ये चन्द मुद्राएं और धान्य स्वीकार कर कृतार्थ करें और चलकर राजदरबार की शोभा बढ़ाएं।’ यह सुनकर आचार्य कैयट ने इस अनुग्रह राशि तथा पद-प्रतिष्ठा ग्रहण करने के आग्रह को स्वीकार करने से स्पष्ट मना कर दिया। उनके इस त्याग स्वाभिमान और विद्वत्ता को आने वाली पीढ़ियों ने सदैव याद रखा। प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा