एकदा
दिव्यता का हकदार
श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता सत्राजित को देवताओं से एक दिव्य मणि उपहार में मिली थी। शतधन्वा नामक एक व्यक्ति ने सत्राजित की हत्या कर स्यमंतक नामक वह दिव्य मणि छीन ली। पिता की मौत का समाचार पाकर सत्यभामा को अत्यंत दुःख हुआ। श्रीकृष्ण उस समय वारणावर्त नगर में थे। वे द्वारिका पहुंचे। उन्हें जैसे ही अपने ससुर की हत्या का समाचार मिला, उन्होंने शतधन्वा का पीछा किया और मिथिला प्रदेश में सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला, लेकिन स्यमंतक मणि उसके पास नहीं मिली। शतधन्वा ने यह मणि श्वफल्क के पुत्र अक्रूर को दे दी थी। अक्रूर को पता चला कि श्रीकृष्ण उस दिव्य मणि की खोज कर रहे हैं, तो उन्होंने यादवों की सभा में स्यमंतक मणि श्रीकृष्ण को सौंपने का प्रस्ताव रखा। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘सत्राजित के संसार में न रहने से अब यह मणि राष्ट्र की धरोहर है। कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है।’ सभी श्रीकृष्ण से वह मणि रखने का अनुरोध करने लगे, लेकिन श्रीकृष्ण ने कहा, ‘मैंने बहुविवाह किए हैं। इसलिए मुझे इसे रखने का अधिकार नहीं है।’ श्रीकृष्ण जानते थे कि अक्रूर पूर्ण संयमी, सदाचारी और ब्रह्मचारी हैं। उन्होंने कहा, ‘अक्रूर, इसे तुम ही अपने पास रखो। तुम जैसे पूर्ण संयमी के पास रहने में ही इस दिव्य मणि की शोभा है।’ श्रीकृष्ण की विनम्रता देखकर अक्रूर नतमस्तक हो उठे।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी