ऑन लाइन रिश्ते
डॉ. रंजना जायसवाल
नवम्बर की गुलाबी ठंड... आजकल अंधेरा जल्दी होने लगा था। ठंड बढ़ने के साथ निर्मला का विवेक की पैदाइश के समय लगाया गया बेहोशी का इंजेक्शन रह-रह कर दर्द करने लगता। एक अजीब-सी लहर एक अजीब-सी गिनगिनाहट पूरे शरीर में दौड़ जाती। दर्द की लकीरें आंखों में उभर आतीं पर दूसरे ही पल चेहरे पर मातृत्व के सुख की संतुष्टि का सुख भी न जाने क्यों साथ ही उभर आता। तभी गेट खुलने की आवाज से निर्मला जी के कान खड़े हो गये,
‘अजी सुनते हो, लगता है कोई गेट पर है।’
गुप्ता जी हाथ में रिमोट लिए वैसे ही बैठे रहे। जब से धीरज ने ये टीवी भेजा है, गुप्ता जी अपनी बूढ़ी आंखों और झुर्रीदार हाथों की उंगलियों से चैनल बदल-बदल कर उसके फीचर समझने की कोशिश में लगे रहते। धीरज बता रहा था बाजार में एकदम नया मॉडल है, इंटरनेट, ब्लूटुथ सबकी सुविधा है। गुप्ता जी ने कई बार धीरज से उसके फीचर समझने की कोशिश की, धीरज ने कम्पनी वाले को फोन कर गुप्ता जी को सिखाने की भी कोशिश की पर…...
‘देखना समाचार ही है फिर काहे की इतनी टिटमेबाजी। धीरज इतना बड़ा हो गया पर पैसे की उसे आज तक वैल्यू समझ नहीं आयी।’
निर्मला की बात को अनसुना कर गुप्ता जी टीवी में ही जूझते रहे। निर्मला समझ गई थी, गुप्ता जी का उठने का मन नहीं है ये पुरुष भी न... वैसे भी एक बार वो कंबल में पैर डाल कर बैठ गए तो दुनिया इधर की उधर हो जाये पर हिलते नहीं थे।
‘अरे यार! समझती नहीं हो तुम एक तो मुझे इतनी ठंड लगती है ऊपर से कितनी मुश्किल से कम्बल गर्म किया है।’
निर्मला हंस पड़ती कम्बल को गर्म करने के लिए इन्होंने कौन-सी मेहनत की है। निर्मला ने दरवाजा खोला, दरवाजे पर सिन्हा साहब और भाभी जी थे। पहले एक ही मोहल्ले में रहते थे वे दोनों, सिन्हा साहब से बहुत पुराना रिश्ता था, लगभग हर हफ्ते का ही आना-जाना था पर जब से सिन्हा साहब का बेटा अमेरिका गया उन्होंने अपना घर बेच दिया और फ्लैट में रहने लगे। ‘हम दोनों बुड्ढे-बुढ़िया ही अब रह गए हैं, आजकल शहर में कितनी वारदातें हो रही हैं। कल हमारे साथ कुछ हो जाए तो पड़ोसियों को पता भी नहीं चलेगा वैसे भी अब इस बूढ़े शरीर से भाग-दौड़ नहीं होती। फ्लैट में रहेंगे तो सुरक्षा और घर की और जरूरतों के लिए सोचना और दौड़ना नहीं पड़ेगा।’ आज भी याद है शांति भाभी जी अपने मकान को बेचते वक्त कितना रोई थी। कितने अरमानों से बनाया था उन्होंने वह घर... तिनका-तिनका जोड़ कर न जाने कितने सपनों का गला घोंट कर उन्होंने वह घर बनाया था। बच्चों की किलकारियों से गूंजता था वह घर पर वक्त के साथ बच्चे अपने सपनों की तलाश में अपने घोसलों को छोड़कर दूर बस गए। सिन्हा दम्पति को देखकर गुप्ता जी उठकर बैठ गए,
‘आइए-आइए भाभी जी! बहुत दिनों बाद आना हुआ।’
‘अरे भाई हम तो भूले-भटके आ भी जाते हैं पर आप तो हमारे घर का रास्ता ही भूल गए हैं।’
सिन्हा साहब कहते हुए सोफे में धंस गये।
‘अरे नहीं यार... तुम तो जानते हो मुझे ठंड बहुत लगती है, रोज सोचता हूं कि तुमसे मिल आऊं पर...’
‘पर इतनी मेहनत से गर्म किए कम्बल को छोड़कर निकलना कोई आसान बात थोड़े है।’
निर्मला ने हंसते कहा... निर्मला की बात सुन सभी ठठा मारकर हंस पड़े। कितने दिनों बाद ये घर इंसानों की हंसी से गुलज़ार था। कहने को तो गुप्ता जी और निर्मला जी एक छत के नीचे ही रहते थे पर वक्त के साथ मानो उनकी बातें भी कहीं न कहीं चुक चुकी थी। हंसना तो वो कब का भूल चुके थे, निर्मला सबको बैठक में छोड़कर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। गुप्ता जी बड़े उत्साह से सिन्हा दम्पति को अपने नए टीवी के बारे में बता रहे थे। निर्मला जी को रसोईघर में गये काफी समय हो गया था, दोनों दोस्त यादों का पुलिंदा खोलकर बैठ गये। वो अपनी बातों में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें ये भी याद नहीं रहा कि कमरे में शांति भी बैठी हैं। शांति जी निर्मला जी को तलाश करते-करते रसोईघर तक पहुंच गई। अभी पिछले साल ही तो विवेक ने पूरे घर का नवीनीकरण कराया था। डबल डोर वाला फ्रिज, चिमनी, चार मुंह वाला चूल्हा, आरओ मशीन, एकदम टीवी धारावाहिकों वाला रसोईघर।…
‘आइए भाभी!...’
निर्मला ने रसोईघर के दरवाजे पर खड़ी शांति को देखकर कहा... दोनों में काफी अच्छी समझ और तालमेल था। मन जब कभी बहुत अधिक व्याकुल होता तो वो दोनों एक-दूसरे के सामने अपने दर्द की गिरह खोल कर बैठ जातीं।
‘आपका रसोईघर कितना अच्छा हो गया है, चार चूल्हे में काम करने में कितनी सहूलियत रहती होगी न...?’
‘दो प्राणी हैं कितना बनाना ही रहता है। इनका कोलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ है, डॉक्टर ने इनको तेल-घी खाने को मना किया है। अपने लिए अकेले क्या बनाऊं, जो ये खाते हैं मैं भी वही खा लेती हूं।’
‘विवेक और धीरज के बिना ये घर कितना सूना हो गया है, अकेली पड़ गई हैं आप…!’
‘अकेली कहां…?’
निर्मला ने एक भरपूर नजर घर पर डाली…।
‘है न सब मेरे पास... बच्चों की बातें, उनके होने का अहसास और कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार।’
निर्मला न जाने किस सोच में डूब गई थी। कल रात ही तो बेटों को याद कर तकिए में मुंह दबाये वो घण्टों रोई थी। निर्मला अक्सर सोचती थी बच्चे पिता से एक बार और मां से दो बार अलग होते हैं। एक बार गर्भनाल से और एक बार अपने सपनों की तलाश में... देखा जाये तो मां का दर्द पिता के दर्द से ज्यादा ही होता है। निर्मला की सूजी हुई आंखें उसके दिल का हाल बयान कर रही थीं। उसके मन के गीले आकाश पर अभी तक छाई थी कल रात की यादें...
‘भाभी! हर साल लगता है विवेक अब तो आयेगा। उम्मीदों के साल दर साल बीतते जा रहे हैं पर मेरे जीवन में आया पतझड़ तो मानो बस ही गया है जाने का नाम ही नहीं लेता।
बच्चों को लगता है उम्र के साथ मां-बाप बूढ़े हो गए पर वह यह नहीं जान पाते कि मां-बाप को उम्र नहीं बच्चों की जिम्मेदारियां बूढ़ी कर देती हैं पर हमें तो उनका इंतज़ार बूढ़ा कर रहा है। एक ऐसा इंतज़ार जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।’
‘इतना क्यों सोचती हैं भाभी, भाईसाहब को देखिए कितना मस्त रहते हैं अपनी दुनिया में... एक-एक सामान कितने उत्साह से दिखाते हैं। धीरज और विवेक की तारीफ करते नहीं थकते, अभी इनको नया वाला टीवी दिखा रहे थे। पिछली बार कितने उत्साह से बता रहे थे, ‘भाभी इस घर में हम दोनों बूढ़े-बुढ़िया को छोड़कर सब कुछ नया है।’ इतने लायक बच्चे मिले हैं, कितना ध्यान रखते हैं आपका,… और क्या चाहिए।’
लाल-लाल सूजी हुई आंखों को अपने आंचल से पोंछती निर्मला ने शांति जी को देखा,
‘भाभी क्या हमें अपनी संतानों से बस यही चाहिए था, आपके भाईसाहब और मैं इस शहर में एक अटैची लेकर ही आये थे। सोचा था पैसा नहीं है तो क्या हुआ हम सब में प्यार तो है पर देखिये न आज इस घर में पैसा तो है पर प्यार न जाने कहां खो गया। घोसला बनाने की फिक्र में हम इतने मशगूल हो गए कि हमारे पास भी उड़ने को पंख हैं ये भी भूल गये। सुना था कि जिंदगी की हर सुबह कुछ शर्तें लेकर आती हैं और ज़िंदगी की हर शाम कुछ तजुर्बे देकर जाती है पर हमारी ज़िंदगी ऐसे तजुर्बे देकर जायेगी ये सोचा न था।…’
निर्मला की बात सुन शांति जी गहन सोच में डूब गई, सच ही तो कह रही थी वो... पांच साल हो गए बेटे को अमेरिका गये हुए पर उसने कभी पलटकर भी नहीं देखा कि हम मर रहे या जी रहे। जब भी उससे भारत आने की बात पूछो तो वो उखड़ जाता। वो तो नहीं आता पर जन्मदिन, तीज-त्योहार पर उसके भेजे ऑन लाइन उपहार जरूर आ जाते हैं। पिछले महीने ही तो उसने फूड प्रोसेसर भेजा था, क्या कहती वो... उसके जाने के बाद ज़बान तो क्या ज़िंदगी का स्वाद भी जाता रहा। क्या बनाती और किसके लिए बनाती…।
‘भाभी! यही घर बच्चों के रहने पर कितना छोटा लगता था। चैन के एक पल के लिए तरस कर रह जाती थी अब यही घर उनके बिना भाय-भाय करता है। बच्चों के रहने पर इस घर की दीवारें भी खिलखिलाती थीं पर आज... आप अकेले बोल तो सकते हैं पर बातचीत नहीं कर सकते। आप अकेले आनन्दित तो हो सकते हैं पर उत्सव, तीज-त्योहार नहीं मना सकते। आप अकेले अपने एकांत के साथ मुस्कुरा तो सकते हैं पर ख़ुशियां नहीं मना सकते हैं। सच पूछिए तो हम रिश्तों के बिना कुछ भी नहीं है। आपने सही कहा ये मुंह से तो कुछ नहीं कहते पर दिन पर दिन एक अजीब-सा चिड़चिड़ापन इनके व्यवहार में आता जा रहा। ये पुरुष बहुत चालाक होते हैं, सच कहूं तो बेचारे होते हैं। ज़िंदगी एक पर्दे की तरह ही तो है, जिसके इस पार वो और उस पर स्त्री रहती है। स्त्रियां तो एक बार अपनी दिल की गिरहों को सबके सामने खोल भी देती हंै पर पुरुष कभी नहीं खोलता अपने मन के किवाड़ों को... कस कर बन्द कर देता है उन दरवाजों को और लगा देता है पुरुषत्व की सांकल... क्योंकि वो नहीं चाहता कि कोई ये जाने वो बन्द दरवाजों के पीछे फैले अंधेरे कमरों में कैसे घुट-घुटकर जीता है।’
‘निर्मला भाभी सच कह रही है आप... बच्चे कहने को तो हमसे बहुत दूर चले गए पर उनकी यादें गाहे-बगाहे मां-बाप के दिल पर सेंध मारती ही रहती हैं। बच्चे ज़िंदगी की दौड़ में इतने आगे निकल चुके हैं कि अपने नीड़ को भी भूल गए पर वो ये नहीं समझते कि रिश्तों की उष्णता बनाये रखना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि उनकी छोटी-सी अनदेखी रिश्तों के साथ इंसान को भी ठंडा कर दे। बच्चों के घर के पते बदल गए और ऐसे बदले कि उन पतों के पते भी ढूंढ़ना किसी तकनीक के बस की बात नहीं रही…’
शांति जी की आंखें भी न जाने क्या सोचकर भर आईं,
‘भाभी जी सब हमारा इंतज़ार कर रहे होंगे, आइए चले…’
निर्मला और शांति हाथ में चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर बैठक की ओर चल पड़ी। नया फीचर वाला टीवी पर ऑन लाइन खरीदारी करने वाली कंपनी गला-फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही था ‘इन डिब्बों में क्या है सामान ही तो है अपनों से जुड़े रहने का अरमान ही तो है।’ काश! अबकी बार ये डिब्बा अपने साथ इस घर की खुशियां भी ले आये। निर्मला भाभी की आंखें जिन्हें हमेशा ढूंढ़ती है काश! वो भी ये ऑन लाइन वाले घर तक पहुंचा पाते।