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गंगा की सौगंध और गंगाजल का संकल्प

06:24 AM Aug 01, 2024 IST
गंगा की सौगंध और गंगाजल का संकल्प
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शमीम शर्मा

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कल एक कटाक्ष सुनने को मिला कि छोरियां तो ला रही हैं मेडल अर छोरे ला रहे हैं कांवड़। मेडल हो या कांवड़- दोनों में पसीना बहाना पड़ता है। दोनों में अनुशासन की दरकार है। हरिद्वार के गंगा घाटों से लेकर हाईवे और गांवों की सड़कों या पगडंडियों तक कांवड़ यात्रियों की कतारें दिनोदिन बढ़ती ही जा रही हैं। डाक कांवड़ियों की संख्या भी बहुत बढ़ चुकी है। इन कांवड़ियों के हुजूम के सामने पुलिस अग्नि परीक्षा से गुजर रही है, आमजन सहमा हुआ है क्योंकि हुजूम कई जगह बेकाबू होकर अराजकता की सीमायें लांघ रहा है। दूसरी तरफ यह भी दुखद है कि कहीं कांवड़िये डूबकर लापता होे रहे हैं तो कहीं सड़क पर दुर्घटना का शिकार। परिणाम यह निकल रहा है कि कांवड़िये अपना गुस्सा कार-जीपों पर निकाल रहे हैं। तब आस्था लड़खड़ाने लगती है और धर्म की सारी शुचिता अराजकता में बदलती प्रतीत होती है। हिंसा और अराजकता का धार्मिकता से दूर-दूर का भी नाता नहीं है।
आजकल जिधर देखो, सभी सड़कों और चौराहों-तिराहों पर कांवड़ियों का केसरिया बाना, गंगाजल की महक और डीजे पर नाच-गाने दिखते हैं। मेरा मन सोचता है कि धर्म का यह रूप अचानक कैसे विकसित हो गया। इसमें कोई शक नहीं है कि पैदल धार्मिक यात्राओं का अपरिमित महत्व है पर आत्मा-परमात्मा से जुड़े धार्मिक अनुष्ठान प्रदर्शन और मौजमस्ती में तब्दील होने लगें तो संकेत अच्छे नहीं हैं।
ज्यादातर कांवड़िये युवा हैं। युवकों का भारी संख्या में धर्म की ओर उन्मुख होना सुखद है पर धर्म को उन्माद के चरम पर ले जाकर दूसरों को तर्जनी उठाने का मौका देना चिन्ता का विषय है। धर्म का असली काम है जागृति बोध पैदा करना। युवक अगर एक बार जाग जायें तो क्या मजाल कि देश के नेता भ्रष्टाचार में संलिप्त हो सकें। क्या मजाल कि उनके अभिभावक दिखावे के लिये शादियों पर लाखों-करोड़ोें फूंक सकें।
युवक अपनी-अपनी कांवड़ के गंगाजल पर हाथ रखकर एक बार कसम खा लें कि भ्रष्ट अफसरों को सहन नहीं करेंगे तो रातोरात एक पवित्र राज्य की परिकल्पना साकार हो सकती है।
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एक बर की बात है अक नत्थू अपणी दो छोरियां तैं मिलण चल्या गया। पहल्यां वो बडली छोरी धोरै गया। बात-बातां मैं उसकी छोरी बोल्ली- बाब्बू! ईबकै राम जी नहीं बरस्या तो मैं तो कती मर ल्यूंगी, ईबकै हमनैं खेती घणी कर राखी है। फेर नत्थू अपणी छोटली छोरी कै गया तो बात-बातां मैं वा बोल्ली- बाब्बू! ईबकै हमनैं मिट्टी के बर्तन खूब पाथ राखे हैं पर जै रामजी बरस ग्या तो मैं तो कती मरगी। इसके बाद घरां आकै नत्थू अपणी घरआली तैं बोल्या- भागवान! तैयारी कर ले, एक छोरी तो जरूर मरैगी।

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