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दोयम दर्जा नागरिक बनाने की नर्सरियां

07:41 AM Jan 22, 2024 IST
दोयम दर्जा नागरिक बनाने की नर्सरियां
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राजेश रामचंद्रन

राम मंदिर को लेकर चंहुओर बना अति उत्साह इतना अधिक है कि 75वें गणतंत्र दिवस के समारोह की खबरें सुनाई नहीं दे रही हैं। एक छोटा उदाहरण बताएं तो नोएडा स्थित सिविल सर्वेंट्स को-ऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसायटी ने भी 22 जनवरी को अपने परिसर के भीतर एक मंदिर का उद्घाटन करने की घोषणा की है, अब लेखाकार विभाग से सेवानिवृत्त अनेक अधिकारी धार्मिकता और आधुनिकता के बीच संतुलन साधने को लेकर हैरान हैं।
मंदिर राजनीति से इतर, गणतंत्र दिवस की हीरक जयंती अवसर है ठिठककर मुल्क की स्थिति का जायजा लेने का। चांद पर लैंडिंग, उत्तरी एवं पूर्वी सीमाओं पर सैनिकों की आमने-सामने डटने की स्थिति, यूक्रेन युद्ध से बिगड़ता नाजुक राजनयिक संतुलन, पश्चिम एशिया में टाइम-बम सरीखे हालात और विश्वभर में गिरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच यदि भारतीय व्यवस्था कायम है तो यह चमत्कार किसी को भी हैरान होने को मजबूर करेगा। यह उपलब्धि विचारणीय और बाध्यकारी अवयवों के आलोक में छोटी नहीं है जबकि आजादी के पहले ही दिन से इन्होंने राष्ट्र को जन-कलहों की ओर धकेलना शुरू कर दिया था।
संकुचित होते और नए उभरते साम्राज्य ने भारत के टुकड़े करने की साजिश रची और देश के प्रत्येक हिस्से में पृथकतावाद के बीच बोए। लेकिन जो शुरुआत अच्छी तरह सोची-समझी योजना से हुई वह अब तमाशे में तब्दील होती जा रही है। मसलन, औपनिवेशिक काल में, 1942 में ‘अधिकारी सिद्धांत’ जैसे विचारों ने धार्मिक पृथकतावाद को न्यायसंगत बताने की बहुतेरी कुतार्किक कोशिशें की, यहां तक कि अभी भी कट्टर मार्क्सवादी अपनी बेवसाइट्स चलाने की खातिर पश्चिमी या चीनी वित्तीय सहायता पर निर्भर हैं– यह बताने की आवश्यकता नहीं कि ‘डंकी रूट’ के जरिये आप्रवासियों को अमेरिका में राजनीतिक शरण पाने की खातिर अमृतपाल सिंह की वीडियो फैलाने और खालिस्तानी नारे लगाने को कहा जाता है।
भारतीय गणतंत्र और संविधान ने अपना मुकाम पाने को बहुत संघर्ष किया, कठिनाइयां सही और जिस किस्म का देश बनाने का विचार हमारे संस्थापक पितामहों का था, उससे हटाने को, अंदरूनी एवं बाहरी दबावों के प्रयासों के बीच उसने अपना वजूद बनाए रखा। राष्ट्र की आत्मा, यदि कोई है, उसकी कामना कलह, अलगाव और लालच की बजाय सामूहिक समृद्धि की होगी। यहां तक कि जनसंख्या के एक बड़े वर्ग की बहुसंख्यकवादी प्रवृत्तियां उनकी अपनी आकांक्षाओं से प्रभावित होती दिखाई दे रही हैं। आखिरकार शांति समृद्धि के लिए पूर्व-शर्त है। और एक राष्ट्र निरंतर खुद से लड़ना गवारा नहीं कर सकता।
लेकिन एक भयावह अवयव है जोकि राष्ट्रीय महानता की तमाम उम्मीदों को धराशायी कर सकता है। एक कड़वी हकीकत राज्य एवं केंद्र सरकारों के सामने मुंह बाए खड़ी है ः ग्रामीण विद्यालयों का शोचनीय शिक्षा स्तर, जिनमें अधिकांश सरकारी हैं। एक गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम फाउंडेशन’ द्वारा किया गया हालिया सर्वे, जिसके परिणाम ‘वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट 2023’ में प्रकाशित हुए हैं, हमारे ग्रामीण युवावर्ग की वास्तविक काबिलियत के स्तर को उजागर करती है। पुराने वक्त के बरक्स केवल नाममात्र की साक्षरता बनाने को बहुतेरा धन लगाया जा रहा है, आज गांव-देहात में स्कूलों की कमी नहीं है।
सर्वे के अनुसार, 14 से 18 साल के बीच 86.8 फीसदी देहाती बच्चे शिक्षा संस्थानों में दाखिल हैं – अधिकांशतः सरकारी स्कूलों में। लेकिन इन छात्रों का बड़ा हिस्सा किताब सही ढंग से नहीं पढ़ पाता ,न ही उसे अच्छी तरह गणित आता है और न समय की गणना। यह राष्ट्र पर असरकारक किसी अन्य संकट से कहीं ज्यादा बदतर और एक टाइम बम जैसा है। भारत की असल ताकत हमेशा द्वितीय श्रेणी के शहरों और ग्रामीण अंचल में निहित रही है। यदि वे निराशाजनक रूप से रोजगार के अयोग्य युवा पैदा करने जा रहे हैं तो गणतंत्र का कोई भविष्य नहीं है।
उदाहरणार्थ, पंजाब और हरियाणा में बच्चों का निम्न दर्जे का प्रदर्शन है। पंजाब में 14-18 वर्ष के बीच स्कूल दाखिला 88.7 प्रतिशत है, लेकिन आधे से ज्यादा छात्रों को सरलतम गुणा-भाग तक नहीं करना आता। वहीं 14-16 आयु वर्ग में 17 फीसदी लड़के पंजाबी में दूसरी कक्षा में लगी पुस्तक की पंक्तियां अच्छी तरह नहीं पढ़ पाते। जो कुछ उन्हें सातवें साल में सीख लेना चाहिए था, वह 16वें बरस में भी नहीं कर पा रहे। इन लड़कों में 20 फीसदी को तो पहली कक्षा की किताब से पूछे सवालों का जवाब तक नहीं आता। वहीं 17-18 आयु वर्ग में लगभग आधों को समय की गणना करनी ऩहीं आती तो 84.9 प्रतिशत से कर्ज अदायगी की गणना नहीं की गई। बता दें, 14-16 की आयु तक वे अधिकांश लड़के सरकारी स्कूलों में पढ़े, लेकिन 17-18 की उम्र में ज्यादातर ने निजी शिक्षा संस्थानों में दाखिला लिया, इसलिए सारा दोष सरकारी स्कूलों पर नहीं मढ़ा जा सकता।
हरियाणा में भी स्थिति इतनी ही निराशाजनक है। यहां 14-16 आयु वर्ग के 17 फीसदी लड़के दूसरी कक्षा की पुस्तक की पंक्तियां ठीक से नहीं पढ़ पाते तो 17-18 की उम्र वालों का प्रतिशत 14.8 रहा। लड़कियों की हालत कुछ बेहतर रही। चौंकाने वाली बात कि 17-18 आयुवर्ग में 45 प्रतिशत लड़कों से गणित में सरल भाग तक करना नहीं आया तो इसी वर्ग में 76 फीसदी को ऋण अदायगी की गणना करनी नहीं आती। लड़कियों की स्थिति भले ही कुछ बेहतर है, लेकिन उनमें भी कमोबेश स्थिति भयावह है। हिमाचल प्रदेश के आंकड़े भी कुछ विशेष अच्छे नहीं हैं। वहां भी 17-18 की उम्र के आधे लड़कों को सरल भाग व समय गणना करनी नहीं आती तो 83 प्रतिशत को ऋण-वापसी की गणना नहीं कर पाए।
गगनचुम्बी इमारतों के चमक-दमक वाले आवरण और चंद्रयान-3 की लैंडिंग की सफलता से इतर भारत की असल वास्तविकता लाचार लड़के-लड़कियों में निहित है, जिनकी नियति दुनिया का सामना करने को माकूल तैयारी के बगैर स्मार्टफोन में खपने की रह गई है (लगभग 90 फीसदी के पास यह है)। हमारी शिक्षा प्रणाली में पूर्व-प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतर स्कूलों तक (यूनिवर्सिटियों की गाथा भी बदतर है, उसकी बात फिर कभी बताने की जरूरत है) में कुछ तो गंभीर रूप से गलत हुआ है। अध्यापक, शिक्षा विभाग के अफसर और राजनेता समान रूप से जिम्मेवार हैं।
राजनेताओं के लिए सरकारी स्कूल नौकरियां बांटने का तंत्र बनकर रह गए हैं, जिन्हें काम न करने की सूरत में वे सजा देने से डरते हैं। कोई हैरानी नहीं कि स्कूलों में बच्चों और यौन-छेड़छाड़ की शिकायतें शिक्षा विभाग से आने की बजाय पीड़ितों और अभिभावकों से मिलती हैं। सरकारी स्कूल की नौकरी, उच्च वेतनमान और जीवन पर्यंत पेंशन और कुछ नहीं केवल करदाता की एवज पर वोट पाने के पैंतरे हैं। परिणाम क्या होगा, इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं क्योंकि अध्यापक, अधिकारी और राजनेता खुद अपने बच्चों को ग्रामीण सरकारी स्कूलों में दाखिल नहीं करवाते, जिनको वे अपने बच्चों के लायक नहीं समझते। स्कूलों की हालत रातों-रात सुधारने का सरलतम उपाय है कि शिक्षक-अधिकारियों के लिए अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजना अनिवार्य कर दिया जाए, जिसने उन्हें नौकरी, तन्खवाह और जीवन-पर्यंत पेंशन मुहैया करवा रखे हैं।
जहां तक निम्न दर्जा निजी स्कूलों की बात है, सरकार को स्थानीय राजनेताओं द्वारा चालित इन शोषणकारी शिक्षा की दुकानों को तुरंत बंद कर देना चाहिए, जिनकी सामर्थ्य पढ़ाने में नहीं बल्कि अभिभावकों को निचोड़ने की है। भारतीय राजनेता खुद अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए सदा निजी स्कूलों पर भरोसा करते आये हैं। फिर क्यों न ग्रामीण गरीबों को सही ढंग से पढ़ाई करवाने के लिए सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों को सब्सिडी देते हुए संपूर्ण शिक्षा क्षेत्र का निजीकरण कर दिया जाए? क्योंकि मौजूदा शिक्षा तंत्र का मनोरथ केवल द्वितीय श्रेणी नागरिकों का विशाल जमावड़ा पैदा करना है। अब कोई यह न कहे कि भारतीय राजनेता यही करना चाहते हैं।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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