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मानवीय संकट बढ़ाती परमाणु अस्त्र होड़

08:41 AM Jul 02, 2024 IST
मानवीय संकट बढ़ाती परमाणु अस्त्र होड़
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सी. उदय भास्कर
इस माह की चर्चाओं के केंद्र में मुख्य विषय प्रलयंकारी परमाणु हथियार और संकट में पड़े वैश्विक सुरक्षा तंत्र रहे। गत 17 जून को दो अहम रिपोर्टें एक ही दिन जारी हुईं– एक है, आईसीएएन (इंटरनेशनल कैम्पेन टू एबोलिश न्यूक्लियर वैपन्स) की और दूसरी है सिपरी (स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट) की। इनके निष्कर्ष कष्टकारी और निराश करने वाले हैं।
आईसीएएन रिपोर्ट बताती है कि एन-9 अर्थात‍् परमाणु शक्ति संपन्न नौ राष्ट्रों (अमेरिका, यूके, रूस, चीन, फ्रांस, भारत, इस्राइल, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया) ने अपने-अपने आणविक शस्त्रागारों के आधुनिकीकरण और विस्तार कार्यक्रम पर 91 बिलियन डॉलर की राशि खर्च की है। इस बारे में सबका तर्क एक समान है यानी ‘दूसरों से परमाणु खतरे’ का वास्ता देते हुए, अपने अंदर गहरे पैठी सामरिक ‘असुरक्षा की भावना’ का तुष्टीकरण है।
अनुमान को सिद्ध करते हुए, सबसे अधिक धन खर्च वालों में चोटी के तीन मुल्कों में पहले पायदान पर अमेरिका है (51.5 बिलियन डॉलर)- जो कि विश्वभर में परमाणु हथियार संबंधित कुल व्यय का आधे से अधिक है, दूसरे नंबर पर चीन (11.8 बिलियन) और तृतीय पर रूस (8.3 बिलियन) है। आईसीएएन की निदेशक मेलिसा पार्के का कहना है कि परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों का इस मद में सकल खर्च प्रति सेकंड 2,898 डॉलर बैठता है और यह सम्मिलित व्यय संपूर्ण दुनिया से भुखमरी खत्म करने को जितना पैसा चाहिए, उससे अधिक है। उन्होंने आगे कहा- ‘एक मिनट में जितना खर्च परमाणु हथियारों पर होता है, उतने में 10 लाख पौधे रोपे जा सकते हैं।’
यहां पर रोपे जाने वाले पौधों की संख्या का संदर्भ वैश्विक ताप सूचकांक में निरंतर बढ़ोतरी और पर्यावरणीय बदलावों से पैदा हुए अतिशय मौसम के संदर्भ में प्रासंगिक है, किंतु इस मुद्दे पर संसार की प्रतिक्रिया लचर और निष्प्रभावी किस्म की है। भारत इन दिनों झुलसा देने वाली गर्मी झेल रहा है, तिस पर इसका पेड़ और मनुष्य का अनुपात भयावह रूप से बहुत कम है, और भारत विश्व के सबसे अधिक प्रभावित बड़े देशों में एक है (कुल भूभाग और जनसंख्या के लिहाज से)। यह भू-भौतिक प्रवृत्ति जल्द ही विश्व के सभी मनुष्यों की सुरक्षा के लिए गंभीरतम खतरा बनने जा रही है। हज करने गए लोगों की झुलसाती गर्मी से संबंधित हालिया मौतें इसका साक्षात उदाहरण हैं।
सिपरी की वार्षिक पत्रिका-2024 वह बृहद प्रकाशन है जो अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा, शस्त्र एवं तकनीक, सैन्य व्यय, शस्त्र उत्पादन, शस्त्र-व्यापार, हथियारबंद संघर्ष और युद्ध प्रबंधन के अलावा रिवायती, परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों पर नियंत्रण को लेकर प्रयासों का अवलोकन प्रस्तुत करता है। लगभग सौ पन्नों का परमाणु अध्याय पिछले साल परमाणु क्षेत्र में हुए नवीनतम विकास और चलन का बहुमूल्य सार प्रस्तुत करता है। लेखक हैन्स क्रिसटेंसेन और मैट कोर्डा के परिश्रम की तारीफ करनी करनी बनती है कि उन्होंने इस गोपनीय क्षेत्र की अंदरूनी जानकारी बहुत मेहनत से खोद निकाली है, जबकि इस विषय-वस्तु पर अमूमन तथ्यों की जगह भ्रामक जानकारी एवं सूचनाएं और राजनीतिक लफ्फाजी का बोलबाला रहता है।
सिपरी आणविक सर्वे का मुख्य निष्कर्ष यह है कि परमाणु हथियारों की किस्मों और संख्या में वृद्धि हुई है। सभी परमाणु शक्ति संपन्न मुल्कों ने अपनी ‘प्रतिरोधक आणविक’ क्षमता पर निर्भरता बढ़ाई है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह करने से मूल राष्ट्रीय हित सुरक्षित होते हैं। इसका नवीनतम उदाहरण रूस-यूक्रेन युद्ध है, जब रूस ने अमेरिका नीत नाटो को परमाणु अस्त्र प्रयोग की धमकी देते हुए अपनी ओर से ‘रेड लाइन’ खींच दी, बदले में, नाटो और अमेरिका ने भी कहा कि वे भी अपनी तमाम जवाबी परमाणु तैयारियों में बढ़ोतरी करने जा रहे हैं।
सिपरी आणविक अवलोकन संकेत देता है कि 2024 के शुरुआती दिनों में, नौ परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के पास कुल मिलाकर लगभग 12,121 परमाणु हथियार हैं, जिनमें 9,585 के बारे में माना जाता है कि इस्तेमाल के लिए तत्काल तैयार हैं। कयास है कि 3,904 आणविक आयुध कार्यकारी बलों के साथ तैनात हैं और इनमें भी लगभग 2100 को उच्च संचालन सतर्कता श्रेणी में रखा गया है– यह संख्या पिछले साल के मुकाबले 100 अधिक है।
जहां एक ओर अमेरिका और रूस के परमाणु हथियारों का सम्मिलित हिस्सा अभी भी विश्व के सकल आणविक शस्त्रागारों का 88 प्रतिशत है वहीं चीन को लेकर सिपरी का आंकड़ा चौंकाने वाला है, जनवरी, 2023 में उसके पास 410 परमाणु अस्त्र थे जो जनवरी, 2024 में बढ़कर 500 हो गए और इनकी संख्या आगे और बढ़ने की उम्मीद है। यह भी कहा कि चीन अगले एक दशक तक अपने परमाणु शस्त्रागार का काफी आधुनिकीकरण और विस्तार करने की प्रक्रिया में लगा रहेगा और कुछ अनुमानों के मुताबिक इस अवधि में चीन भी रूस एवं अमेरिका जितनी इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइलें तैनात करने का मंसूबा रखता है।
चूंकि चीन की अमेरिका से होड़ है, उसके आणविक हथियारों की तैनाती (जो वर्तमान में 24 है) में स्पष्ट दिखाई देने वाली बढ़ोतरी का बहुत ज्यादा असर दक्षिण एशिया की रणनीतिक संतुलन स्थिरता पर पड़ेगा, जो कि भारत के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।
शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका एवं उसके सहयोगियों और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच परमाणु मिसाइलों की गिनती बढ़ाने की दौड़ 1945 से 1991 तक जमकर चली। साल 1962 के ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ प्रसंग से पैदा हुए डर के बाद, इन दोनों पक्षों ने अपनी रक्षार्थ एक भरोसेमंद, मजबूत आणविक प्रतिरोध प्रणाली कायम करने की ओर कदम बढ़ाए, जिसकी वजह से आगे चलकर शस्त्र नियंत्रण संधि और ‘मैड’ नामक (म्युचुअली एशोर्ड डिस्ट्रक्शन) सिद्धांत उपजा और यह ‘मैड’ शब्द विनाशकारी व्यंग्यवाद का द्योतक भी है।
फरवरी, 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से, विश्व दो प्रतिस्पर्धी परमाणु हथियार युक्त खेमों में बंटता चला गया, एक तरफ अमेरिका के नेतृत्व वाला सैन्य गठबंधन है (जिसमें यूके और फ्रांस हैं) तो दूसरी तरफ रूस-चीन की जोड़ी है, जिसके साथ कनिष्ठ सहयोगी के तौर पर उत्तर कोरिया है। परमाणु शक्ति संपन्न अन्य तीन राष्ट्र– भारत, पाकिस्तान और इस्राइल – ऊपरी तौर पर भले ही गुट-निरपेक्ष दिखाई देते हों किंतु उनका भू-राजनीतिक उन्मुखता से झुकाव स्वयं सिद्ध है।
लेख के शुरू में जिस निराशा का जिक्र है उसके पीछे वजह यह है कि 2022 से संसार यथेष्ट ‘आणविक प्रतिरोध’ क्षमता बनाए रखने वाली नीति से हटकर अब जिस तरह बेलगाम और बेपरवाह होड़ में लगा है। मुख्य शक्तियों के बीच विगत में सामरिक मुद्दों को लेकर जो संचार व्यवस्था और सुव्यवस्थित शस्त्र नियंत्रण एवं संयम बनाए रखने वाली परस्पर समझ थी, वह भी लगातार घटती जा रही है।
वर्तमान में अमेरिका में तीव्र घरेलू सामाजिक-राजनीतिक मंथन चला हुआ है जिसमें डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने की संभावना अधिक है। जहां रूस, चाहे कुछ भी हो जाए, यूक्रेन पर अपनी पकड़ बनाए रखने को कटिबद्ध है, वहीं चीन द्वारा अपने इलाकाई दावों को लेकर झगड़ालू रुख कायम रखने से क्षेत्रीय शांति भंगुर बनी हुई है। यह एक अपशकुन है। आईसीएएन और सिपरी की रिपोर्टें बेशक इस बंजर परिदृश्य पर उद्देश्यपूर्ण ढंग से रोशनी डालती हैं, लेकिन चिंताजनक वास्तविकता यह है कि सुरंग के अंत में प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा।

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लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के निदेशक हैं।

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