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अब कथानक नहीं, दृश्यों में ही दिखती है दिवाली

07:51 AM Oct 26, 2024 IST

हेमंत पाल
दिवाली का त्योहार रोशनी, उत्साह और भव्यता के सबसे जीवंत त्योहारों में से एक है। इस पर्व की चमक किसी न किसी रूप में हमेशा झलकती है। लेकिन, रोशनी के बिना दिवाली का कोई महत्व नहीं होता। यही वजह है कि दिवाली के बहाने फिल्मकार अपनी ‘लाइट्स, कैमरा, एक्शन’ के साथ इसे अच्छी तरह से समझाते हैं। तभी तो फिल्मों में भव्य दीयों, पीतल के लैंप, एलईडी लाइट्स और मोमबत्तियों के साथ ऐसे दृश्य रोशन होते हैं। ऐसे ही ‘कभी ख़ुशी-कभी गम’ में जया बच्चन का दिवाली गीत प्रस्तुत करने का ये सबसे बेहतर यादगार प्रसंग बना। लेकिन, यह खुशी वाला दिन भी सभी को आनंदित नहीं करता, जैसा कि ‘तारे ज़मीन पर’ दर्शील सफारी को दर्शाया गया। स्कूल की छुट्टियां खत्म होते ही उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया जाता है, जहां उसकी उदासी दर्शकों को अ सालती है। वहीं ‘राजू बन गया जेंटलमैन’ में दिवाली के दिन पूरी बस्ती एक साथ सद्भाव का महत्व दिखाती है, जिसमें नायक शाहरुख़ और नायिका जूही चावला बस्ती वालों के साथ फुलझड़ी जलाते हुए अपने बंधन का अहसास कराते हैं। ऐसे ही याद कीजिए तुषार कपूर की फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ जिसमें वे करीना कपूर को सड़क पर बच्चों के साथ मस्ती करते हुए अनार जलाते देखते हैं। तब उन्हें पहली नजर के प्यार का अनुभव होता है। इसके अलावा फिल्मों का दायित्व जागरूकता पैदा करना भी होता है। आशा पारेख को फिल्म ‘चिराग’ में यह समझाने के लिए अपनी आंखों की रोशनी खोनी पड़ती है कि कैसे पटाखे से भयानक दुर्घटना हो सकती है। बात यहीं ख़त्म नहीं होती दिवाली के दिन अपराधी हो या पुलिसवाला- सभी अपनी खुशियां बांटने का मौका नहीं छोड़ते। फिल्मों की किताब में यह सब अपने परिवार से प्यार करने के बारे में है और इसलिए ‘वास्तव’ में संजय दत्त दिवाली उपहार और मिठाई बांटने अपनी पुरानी चॉल में जाते हैं।

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दिवाली कथानक, गीतों व दृश्यों में भी अहम रही

सिनेमा में जिन त्योहारों को ‘कभी खुशी कभी गम’ व्यक्त करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली ही सबसे उल्लेखनीय है। त्योहारों और फिल्मों के कथानकों का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा रहा। लेकिन, पिछले दो दशकों से दिवाली की रौनक परदे से गायब होने लगी। इस त्योहार का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को अब कम कर दिया गया। साल-दो साल में कभी कोई फिल्म आ जाती है, जिसमें दिवाली का प्रसंग गीत या सीन में दिखाई या सुनाई पड़ जाता हैं। जबकि, 60 और 70 के दशक में कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रही। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई ‘दिवाली’ इस परम्परा की फिल्म थी। इसके बाद 1955 में ‘घर घर में दिवाली’ और इसके सालभर बाद आई में ‘दिवाली की रात’ में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाई गई थी।

त्योहारों का कनेक्शन पुरानी परंपरा

कुछ समय से परदे से यह रोशनी का त्योहार जैसे गायब ही हो गया। अब कथानक की विषय वस्तु में बदलाव आने लगा। परदे पर त्योहारों का मनाया जाना, बिकाऊ पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया। फिल्मकार नई शैली के साथ वैश्विक पटल पर पहुंचने के लिए देश के साथ दुनियाभर के प्रशंसकों को लुभाने वाले विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिश में रहते हैं। हर त्योहार का बॉलीवुड कनेक्शन होता है। हमारी परंपराओं, व्रत-त्योहारों को गीतों या फिल्मों के कथानक में पिरोकर दिखाया जाता रहा है। होली तो बॉलीवुड का सदाबहार त्योहार है, लेकिन दीवाली कभी परदे का पसंदीदा त्योहार नहीं बन पाया। दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित मानी जाती है। किंतु, हाल के सालों में फिल्मों में ये त्योहार लगभग भुला दिया गया।

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ब्लैक एंड व्हाइट में दिवाली ने रंग भरे

दिवाली ने सिर्फ रंगीन फिल्मों के ज़माने में ही रंगीनियत नहीं दिखाई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी इस त्योहार की महत्ता बरक़रार रही। जिन फिल्मों में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता दी गई, उनमें 1961 में आई राज कपूर, वैजयंती माला की ‘नजराना’ थी। इस फिल्म में ‘मेले हैं चिरागों के रंगीन दिवाली है’ गीत लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दीवाली का गीत है। शुरू से अंत तक इसमें आतिशबाजी और रोशनी नजर आती है। 1962 में आई ‘हरियाली और रास्ता’ में भी दिवाली के दृश्यों में नायक, नायिका का विरह दर्शाया गया था। वैजयंती माला दिलीप कुमार की ‘पैगाम’ और ‘लीडर’ में दिवाली के जरिये फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 में ‘अनुराग’ में भी आपसी भरोसे को दिवाली से जोड़कर दर्शाया था।

दिवाली दृश्य से कथानक में ट्विस्ट

फिल्मों में दीवाली सिर्फ रोशनी और पटाखों तक सीमित नहीं रही। कथानक में ट्विस्ट लाने के लिए भी दिवाली के दृश्यों का इस्तेमाल किया गया। धमाकों के बीच गोलियों की आवाज दबाकर पूरे परिवार के खत्म करने का दृश्य अमिताभ को सितारा बनाने वाली फिल्म ‘जंजीर’ में काफी प्रभावी ढंग से फिल्माया गया था। इसके बाद धर्मेंद्र की फिल्म ‘यादों की बारात’ में भी तीन बेटों के सामने पिता की हत्या का दृश्य था। कमल हासन की 1998 में आयी फिल्म ‘चाची 420’ में बेटी के दिवाली के दिन पटाखों से घायल होने का दृश्य था। आदित्य चोपड़ा की ‘मोहब्बतें’ (2000) में दिवाली काफी अहम थी। करण जौहर की 2001 में आई मल्टी स्टारर सुपरहिट फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ का टाइटल सांग असल में एक दीवाली गीत ही है। जया बच्चन दीवाली की पूजा करते हुए इसे गाती हैं।

गीतों में भी दिवाली की रंगत

दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हासिल हुई। इन गीतों में ‘नजराना’ का गीत ‘एक वो भी दीवाली थी’, ‘शिर्डी के साईं बाबा’ का गीत ‘दीपावली मनाई सुहानी’ के अलावा ‘खजांची’ का आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई, ‘पैगाम’ का दीवाली गीत ‘कैसे मनाएं हम लाला दिवाली’ और कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ का गाना ‘आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली’ दिवाली को केंद्र में ही रखकर रचे गए गीतों में थे। इसके अलावा फिल्म ‘नमक हराम’ का गीत ‘दिये जलते हैं फूल खिलते हैं’ बेहतरीन फिल्मांकन के लिए दर्शकों को याद है। फिल्म ‘रतन’(1944) के गीत ‘आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंगा’ में दीवाली के लाक्षणिक भाव की पृष्ठभूमि में नौशाद ने विरह-भाव की रचना की थी। फिल्म महाराणा प्रताप (1946) में ‘आई दीवाली दीपों वाली’ की पारंपरिक धुन सुनने को मिली थी। वहीं ‘शीश महल’(1950) के गीत ‘आई है दीवाली सखी आई रे’को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से स्वरबद्ध किया था।

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