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80 के दशक में हर कोई खालिस्तान के पक्ष में नहीं था

06:50 AM Mar 06, 2024 IST

अजय बनर्जी/ट्रिन्यू
नयी दिल्ली, 5 मार्च
पंजाब का बारीकी से अध्ययन करने वाले अमेरिकी प्रोफेसर मार्क जुर्गेंसमेयर ने आज कहा कि 1980 के दशक के दौरान राज्य में हुआ ‘विद्रोह’ शायद धार्मिक राष्ट्रवाद का हिस्सा था। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए स्पष्ट किया कि उस ‘विद्रोह’ में शामिल हर कोई ‘खालिस्तान’ नहीं चाहता था।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सांता बारबरा में एमेरिटस प्रोफेसर मार्क जुर्गेंसमेयर ने बताया कि कैसे जरनैल सिंह भिंडरावाले ने ‘विद्रोह’ को सिख गौरव और सिख गरिमा से जोड़ा। प्रोफेसर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार ‘पंजाब एट क्रॉसरोड्स’ के दूसरे और अंतिम दिन अपने विचार रख रहे थे। वह और वरिष्ठ पत्रकार हमीर सिंह एक सत्र ‘पंजाब: ए लैंड रिडल्ड विद फॉल्ट लाइन्स’ का हिस्सा थे। इस मौके पर प्रोफ़ेसर ज्यूर्गेंसमेयर ने एक किताब का हवाला देते हुए कहा,‘खालिस्तान का विचार सभी ‘लड़ाकों’ के ज़हन में नहीं था। वे पुलिस दमन के खिलाफ लड़ रहे थे और कई मामलों में युवा इस धारा में बह गये।’
इस सत्र में ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के साथ काम कर चुके हमीर सिंह ने कई खामियां गिनाईं, जिनमें यह भी शामिल है कि कैसे पंजाब एक ‘पुलिस स्टेेट’ बन गया है और ऐसे परिदृश्य में कोई आर्थिक विकास नहीं हो सकता।
हमीर सिंह ने बताया कि जिन मुद्दों में बात बिगड़ रही थी, उन कई मुद्दों का समाधान नहीं हुआ और मामला बिगड़ता गया। उन्होंने कहा, ‘इन मुद्दों की सुलझाये बिना अर्थव्यवस्था का समाधान नहीं किया जा सकता।’ रणजीत सिंह का पंजाब सतलुज के उत्तर में था, आज हमारे पास जो कुछ है वह मुख्यतः रियासतें थीं। उन्होंने कहा कि 1951 की जनगणना और 1961 की जनगणना ने एक भाषा को विशेष धर्म से जोड़ दिया - सिखों के लिए पंजाबी और हिंदुओं के लिए हिंदी। लगभग उसी समय जब पंजाबी सूबे (पंजाबी भाषी राज्य) की मांग उठाई जा रही थी। राज्य अभी भी अपनी राजधानी बनाने और पंजाबी भाषी क्षेत्रों को छीनने के लिए संघर्ष कर रहा है। नदी जल के मामले में अन्यत्र देश का रुख अलग है लेकिन पंजाब के मामले में यह रुख अलग है।
1966 में पंजाब का त्रि-विभाजन ने भी एक रेखा खींच दी। आपातकाल में नदी का पानी बंट गया। इसका कोई अंत नहीं है। एेसा क्या है कि उस समय के फैसले पलटे नहीं जा सकते। उग्रवाद के बाद उग्रवाद के कारणों को जानने के लिये कोई प्रयास नहीं किये गये, अत: इसका अंत भी नहीं था। यही बात 1984 के सिख विरोधी दंगों पर भी लागू होती है।

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