स्वस्थ परंपरा नहीं
इसमें दो राय नहीं कि संसद पर दो दशक पहले हुए हमले वाले ही दिन दुबारा सूरक्षा चूक का जो मामला सामने आया, उस पर सांसदों की तल्ख प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी। मगर घटना के विरोध में भारी हंगामा भी टाला जाना चाहिए था। निस्संदेह, जनप्रतिनिधि किसी भी समाज के नायक होते हैं और उनके व्यवहार का सीधा प्रभाव समर्थकों व नागरिकों पर भी होता है। वहीं दूसरी ओर 15 विपक्षी सांसदों का शीतकालीन सत्र के लिये निलंबन भी अप्रिय घटनाक्रम ही कहा जाएगा। यह भी हकीकत है कि विपक्ष ने भी सूरक्षा चूक मामले को सरकार को घेरने के एक अवसर के रूप में देखा। यह विडंबना ही कही जाएगी कि हाल के दिनों में संसद के दोनों सदनों में जहां विपक्षी सांसदों में खासी तल्खी देखी जाती है, वहीं सत्तापक्ष द्वारा भी उसी अंदाज में प्रतिकार होता है। निस्संदेह, इस तरह का व्यवहार स्वस्थ लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों ही जनहित के सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध होते हैं। सत्ता पक्ष का दायित्व जहां आर्थिक विकास व नियोजन का क्रियान्वयन करना होता है, वहीं विपक्ष का दायित्व सत्ता पक्ष के निरंकुश व्यवहार पर अंकुश लगाना होता है। दोनों जनहित में प्रयासरत रहते हैं तो ऐसे में तल्खी, अप्रिय वाद-विवाद तथा निलंबन आदि का औचित्य क्या है? दोनों पक्षों को दुराग्रह से मुक्त होकर सुचारु रूप से सदन चलाना चाहिए। जाहिर बात है कि लोकसभा में विपक्ष के चौदह और राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन के निलंबन को टालने का प्रयास करना चाहिए था। अतीत में भी सदन में गर्मागर्मी व तीखी बहसें होती रही हैं लेकिन सत्ता पक्ष अप्रिय टकराव टालने के प्रयास करता रहा है। निस्संदेह, माननीयों के व्यवहार में शालीनता, गरिमा व धैर्य जैसे मानवीय भाव दृष्टिगोचर होने चाहिए। जिससे देश की जनता व विदेश में भारत की स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं का संदेश जाए।
दरअसल, सूरक्षा चूक के मामले में विपक्ष गृहमंत्री के बयान देने की मांग पर अड़ा था। साथ ही मांग थी कि भाजपा के उस सांसद पर भी कार्रवाई हो, जिसकी अनुशंसा पर आरोपियों को संसद की दर्शक दीर्घा में प्रवेश मिला। बहुत संभव है देर-सवेर सरकार के किसी जिम्मेदार मंत्री द्वारा विपक्ष की मांग पर बयान दिया जाता। वहीं दूसरी ओर उत्तेजित हुए विपक्षी सांसदों को भी जरूरी संयम का परिचय देना चाहिए था। लेकिन आम चुनाव की ओर बढ़ते देश में लोकसभा के आखिरी सत्र में राजनीतिक प्रतिक्रिया के निहितार्थ समझना भी कठिन नहीं है। निस्संदेह, संसद की सुरक्षा एक संवेदनशील मुद्दा है और बाईस साल पहले हुए हमले में हमने बड़ी कीमत चुकायी थी। विश्वास था कि उस घटना से सबक लेकर हमने सुरक्षा की चाकचौबंद व्यवस्था की होगी। लेकिन येन-केन-प्रकारेण दो युवक संसद की सुरक्षा व्यवस्था को भेदने में कामयाब हुए। जाहिर है कि देश की संसद की सुरक्षा में खामी रहने से उपजे घटनाक्रम का देश के जनमानस के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ता है। ऐसे में विपक्ष का सुरक्षा चूक मामले में जवाब मांगना तो बनता ही था। लेकिन इस मामले में सुरक्षा व जांच एजेंसियों की पड़ताल के लिये भी समय दिया जाना चाहिए। निस्संदेह, यह सरकार के सुरक्षा प्रबंधों की विश्वसनीयता का प्रश्न भी है। इस मामले में विपक्ष से भी जवाबदेह व संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की ही जाती है। इसके बावजूद सतारूढ़ पक्ष द्वारा विपक्षी सांसदों के निलंबन की कार्रवाई को सिर्फ अपवाद स्वरूप ही करना चाहिए। तभी अच्छा संदेश जाएगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सत्ता पक्ष एक परिपक्व व्यवहार का परिचय देता है। बहरहाल, सूरक्षा चूक का मामला कई सबक देकर गया है। सांसदों को दर्शक दीर्घा जाने वाले लोगों को पर्याप्त जांच-पड़ताल के बाद पास देना होगा। निस्संदेह, इस घटनाक्रम ने उन आम लोगों के लिये मुश्किल खड़ी कर दी है जो लोकतंत्र के इस सबसे बड़े मंदिर में कार्यवाही देखने की आकांक्षा रखते हैं। अब उन्हें बेहद कड़ी, जटिल और कई परतों वाली जांच व सुरक्षा से गुजरते हुए दर्शक दीर्घा तक पहुंचने का अवसर मुश्किल से मिल पाएगा।