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कांग्रेस हाईकमान के लिए नयी असहज स्थिति

07:42 AM Mar 04, 2024 IST
कांग्रेस हाईकमान के लिए नयी असहज स्थिति
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राजेश रामचंद्रन

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तकरीबन सात साल पहले, गुजरात में राज्य सभा के लिए चुनाव होने को था, जिसने भाजपा की नई अर्जित अजेयता को झुठला डाला। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल पांचवीं बार राज्य सभा की सदस्यता के चाहवान थे। गुजरात से तीन सीटों पर चुनाव होना था जिसमें संख्याबल के मुताबिक 2 भाजपा को तो 1 कांग्रेस के हिस्से आती। भाजपा की ओर से तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय कैबिनेट मंत्री स्मृति ईरानी प्रत्याशी थे, जिनका निर्विघ्न चुना जाना तय था। गुजरात विधानसभा के नेता-प्रतिपक्ष शंकर सिंह वघेला अपने वफादारों सहित बागी हो गए। हालांकि कांग्रेस के हाथ में फिर भी 44 विधायक थे, जो पटेल की जीत के लिए काफी थे।
लेकिन पटेल और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के बीच फर्क यह है कि दिवंगत पटेल ने सबसे बदतर परिस्थिति के मद्देनज़र रणनीति पहले से तैयार कर रखी थी। उस वक्त दो कांग्रेसी विधायकों ने पीठ में छुरा घोंपा भी, परंतु मतपत्र भाजपा को दिखाने के कारण उनकी वोटें अमान्य करार दी गईं। तथापि, पटेल का मास्टर स्ट्रोक यह रहा कि उन्होंने आखिरी क्षणों में आशंकित किसी चुनौती से निबटने की पूर्व तैयारी की हुई थी। उन्होंने भाजपा के एक बागी और सहयोगी दल जद(यू) के एक विधायक को साध रखा था, अतएव इनकी दो वोटों ने परिणाम में सारा अंतर डाल दिया। अगस्त 2017 में हुई पटेल की जीत ने, मोदी के सत्ता में आने के तीन साल बाद, कांग्रेस और विपक्ष को मनोबल प्रदान किया, यह सिद्ध करते हुए कि भाजपा को उसी के गढ़ में परास्त किया जा सकता है।
राजनीति के मैदान में कोई महाप्रवीण नहीं होता, बल्कि अच्छी योजना बनाने और उस पर क्रियान्वयन करने वाले महारथी कहलाते हैं। इस जादुई पैंतरे का श्रेय पटेल को जाता है। लेकिन यह न तो हाथ की सफाई थी व न ही कोई दिव्य दृष्टि। यह राजनीति के मूल नियम पर आधारित था कि आपातकालीन संकटमोचक हल अपने हाथ में पहले से हो। चुनाव जीतने को संख्याबल की जरूरत होती है और उसका हिसाब बारम्बार रखना पड़ता है। सत्ता नीत राजनीति में कहावत है,‘जो सबसे नज़दीकी है वही सबसे ज्यादा नुकसान करेगा’, और इससे प्रथम सीख यह है कि अपनों द्वारा खिसक जाने पर, अतिरिक्त संख्या तैयार रखना। पटेल का जादू यह था कि उन्होंने भाजपा और जदयू, दोनों का एक-एक विधायक अपने पक्ष में तोड़ लिया। लेकिन इसके लिए नेता के अंदर निजी पैठ का होना जरूरी है ताकि विधायकों की गिनती बनी रहे और जरूरत पड़ने पर बढ़ोतरी हो पाए।
कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उन तमाम वरिष्ठों को खफा कर डाला है, जो ऐसे वक्त में हालात संभाल पाते, वे जो नब्ज़ पढ़ने, अपने साथियों या विद्रोहियों का सटीक अंदाजा लगाने की काबिलियत रखते थे। सोनिया गांधी के अध्यक्षता काल के बाद ऐसे लोगों की सेवाओं की जरूरत कांग्रेस ने नहीं समझी। नए विकल्पों से बदले बगैर पुराने नेताओं को दरकिनार कर दिया। इसी कारण कांग्रेस के वकील और नेता अभिषेक मनु सिंघवी को असहज स्थिति झेलनी पड़ी और कहना पड़ा कि राज्य सभा चुनाव की पूर्व संध्या पर जिनके साथ भोजन किया उनके चरित्र को भांप न पाया। यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि हर किसी को सुक्खू के खिलाफ अंदर ही अंदर सुलग रही बगावत का भान था, जिस पर केंद्रीय नेतृत्व ने ध्यान देना गवारा नहीं किया। शुरुआत से ही, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हमेशा विद्रोहियों को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करता आया है ताकि स्थानीय क्षत्रपों को काबू में रखा जा सके। हाईकमान की ऐसी शह प्राप्त विधायकों का सबसे बढ़िया उदाहरण सुक्खू हैं, जिन्होंने हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता वीरभद्र सिंह – जो छह मर्तबा मुख्यमंत्री, नौ बार विधायक और पांच दफा सांसद रहे – उन्हें सदा नश्तर चुभोए रखा। वर्तमान संकट सिद्ध करता है कि विद्रोही होना और नेतृत्व करने की वास्तविक योग्यता होना, अलग गुण हैं। सुक्खू से नाराज नेताओं का आरोप है कि वे जन कार्य विभाग के उन अधिकारियों को तंग कर रहे हैं जिन्होंने दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व सांसद प्रतिभा सिंह की मदद एक शिलान्यास समारोह में की। जाहिर है ऐसे मुख्यमंत्री को क्या मालूम कि उनके दल में क्या खदबदा रहा है।
यह इंदिरा गांधी ही थीं जो अपने स्थानीय शीर्ष नेताओं को सदा खौफ में रख सकती थीं। क्योंकि न केवल वे जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सक्रिय रही थीं। स्थानीय नेताओं और उनके विरोधियोंं से भी, बिना किसी मध्यस्थ द्वारा परिचय करवाए, उनका सीधा राबता रहता था। जबकि राजीव गांधी में यह गुण नहीं था, तभी तो आंध्र प्रदेश में सत्तापलट का कुख्यात प्रसंग हुआ, जिससे तेलुगू अस्मिता भड़क उठी और तेलुगू देसम पार्टी का उद्भव हुआ। मौजूदा दौर में भी ऐसी किसी नेता में इस काबिलियत की उम्मीद नहीं कर सकते हैं जो कभी किसी सदन की निर्वाचित सदस्य न रही हो। जिसको लोग सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर मान्यता न दें, ऐसा लोकतंत्र ताकत के प्रयोग से नहीं चल सकता।
कांग्रेस हाईकमान का प्राथमिक कार्य है अपने मुख्यमंत्रियों और उनके विरोधियों के परस्पर दावों की सुनवाई करना। अधिकांश विधायकों, यहां तक कि मंत्रियों की भी, प्रियंका या उनके भाई तक सीधी पहुंच नहीं है। यह लंबे वक्त से कांग्रेस की दुखद हकीकत है। कांग्रेस का परिचालन एक पारिवारिक व्यापारिक संस्थान की माफिक बन गया है, जिसका प्रबंधन मातहत अधिकारी करते हैं और मालिकों को बही-खाता तक बांचना गवारा नहीं। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेताओं को पहले से भान था कि राज्य सभा चुनाव में स्थिति असहज हो सकती है। एक पूर्व शीर्ष नेता ने चुनाव से पहले निजी बातचीत में यह बात खुलकर कही थी। लेकिन फिर भी किसी ने आहट न सुनी। सुक्खू ने अपने साथियों की नब्ज़ टटोलने को उनका हाथ थामना गवारा नहीं किया। अधकचरे सलाहकारों की सलाहों ने सरकारी मशीनरी को नकारा बना डाला।
वह केंद्रीय नेतृत्व जिसने पार्टी के अंदर सदा परस्पर विरोधियों को शह दी, इस बार सकते में है क्योंकि पार्टी में अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता से बनी स्थिति से कैसे निबटा जाए, प्रियंका को इसका ज्ञान नहीं है। हिमाचल प्रदेश में चूंकि सत्ता दो दलों के पास रही है, इससे बागियों के पास ठौर के लिए तीसरा विकल्प नहीं है। वास्तव में निष्ठा बदलने वालों के लिए यह मुश्किल होगा कि समाज में दलबदलू का कलंक ढोकर विपक्षी दल में अपनी जगह कैसे बनाएं। इसके बावजूद, अगर कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी से निकलने की ठान ली है तो यह केवल इसलिए कि राज्य एवं केंद्रीय नेतृत्व अपने नामी नेताओं का चरित्र भांपने में पूरी तरह विफल रहा। उन्होंने उत्तर भारत की एकमात्र कांग्रेसी सरकार लगभग भाजपा को सौंप दी है। कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवाकुमार और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को लुढ़कने की कगार पर पहुंची सरकार को थामने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। और इस किस्म के नेताओं से राहुल गांधी दूरी रखते हैं। दुर्भाग्यवश तमाम वे नेता जिनका जनाधार है और खुद की जगह स्वयं अर्जित की है, उन्हें राहुल गांधी के निजी दायरे से बाहर हैं, जिससे यह सतही और चिपकुओं का घेरा बनकर रह गया है। शिवाकुमार और हुड्डा जैसे नेताओं की सेवाएं राज्य सभा चुनाव से पहले ली जाती हैं न कि बाद में, यह राहुल और प्रियंका के लिए एक सबक है, जिसे वे न सीख पाए। भारतीय लोकतंत्र को अभी भी प्रमुख विपक्षी दल के नेतृत्व के परिपक्व होने का इंतजार है।

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लेखक प्रधान संपादक हैं।

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