नवगीत
योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
(एक)
पतली-सी रस्सी पर…
भूख मिली थी कल रस्ते में
बता रही थी हाल
पतली-सी रस्सी पर नट के
करतब दिखा रही
पीठ-पेट को ज्यों रोटी का
मतलब सिखा रही
हैं उसकी आंखों में लेकिन
ज़िन्दा कई सवाल
सब्ज़ी के ठेले के संग-संग
घूमी भी दिन भर
किन्तु शाम को जला न चूल्हा
गुमसुम सारा घर
चिढ़ा रहा मुंह उम्मीदों को
सांसों का जंजाल
सड़क किनारे बैठ शून्य में
रोज़ ताकती है
हल तलाशती हर उलझन के
तर्क छांटती है
छोटा-सा दिखता है उसको
इतना गगन विशाल।
(दो)
मन का क्या है …
बता रहा है रोज़नामचा
कुछ तो गड़बड़ है
सूनी आंखों की आशाएं
लकवाग्रस्त रहीं
तपने से चलकर खपने तक
में ही त्रस्त रहीं
विश्वासों का राजमार्ग भी
ऊबड-खाबड़ है
कहता कुछ है करता कुछ है
भीतर-बाहर भ्रम
खुली नहीं सांकल तो कैसे
भारीपन हो कम
मन का क्या है यह तो हरदम
करता बड़बड़ है
दृश्य बदलने की तैयारी
आनन-फानन में
कैसे संभव नई इबारत
बस परिवर्तन में
ठीक-ठाक है यदि सबकुछ,
फिर कैसी हड़बड़ है।