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नवगीत

12:36 PM Jun 04, 2023 IST

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

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(एक)

पतली-सी रस्सी पर…

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भूख मिली थी कल रस्ते में

बता रही थी हाल

पतली-सी रस्सी पर नट के

करतब दिखा रही

पीठ-पेट को ज्यों रोटी का

मतलब सिखा रही

हैं उसकी आंखों में लेकिन

ज़िन्दा कई सवाल

सब्ज़ी के ठेले के संग-संग

घूमी भी दिन भर

किन्तु शाम को जला न चूल्हा

गुमसुम सारा घर

चिढ़ा रहा मुंह उम्मीदों को

सांसों का जंजाल

सड़क किनारे बैठ शून्य में

रोज़ ताकती है

हल तलाशती हर उलझन के

तर्क छांटती है

छोटा-सा दिखता है उसको

इतना गगन विशाल।

(दो)

मन का क्या है …

बता रहा है रोज़नामचा

कुछ तो गड़बड़ है

सूनी आंखों की आशाएं

लकवाग्रस्त रहीं

तपने से चलकर खपने तक

में ही त्रस्त रहीं

विश्वासों का राजमार्ग भी

ऊबड-खाबड़ है

कहता कुछ है करता कुछ है

भीतर-बाहर भ्रम

खुली नहीं सांकल तो कैसे

भारीपन हो कम

मन का क्या है यह तो हरदम

करता बड़बड़ है

दृश्य बदलने की तैयारी

आनन-फानन में

कैसे संभव नई इबारत

बस परिवर्तन में

ठीक-ठाक है यदि सबकुछ,

फिर कैसी हड़बड़ है।

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