नई वाली होली
दिनेश कर्नाटक
शाम को चाय की चुस्कियां लेते हुए पत्नी ने कहा, ‘होली भी तो अब आ ही गई!’ वह हर त्योहार के आने से कुछ दिन पहले इसी तरह सचेत कर दिया करती थी। उसके कहने का अर्थ होता था कि त्योहार सामने है क्या-क्या करना है, कैसे मनाना है, सोचना शुरू कर दिया जाए।
उन्हें एकदम यकीन नहीं हुआ, ‘अभी तो जाड़े भी नहीं गए और होली आ गई!’ यह कहने के साथ वे उदास से हो गए। उन्हें याद है ऐसा बचपन और जवानी के दिनों में नहीं होता था। तब होली का नाम सुनते ही खुशी औऱ उमंग छा जाती थी। मगर इधर कई वर्षों से होली के आने की ख़बर उन्हें भयभीत कर देती थी।
वे सोचने लगे, चारों ओर फैले और बिखरे हुए रंगों को याद करने, उनके महत्व को समझने का कितना सुंदर तरीका है होली। मगर इस तरह से होली के बारे में कौन सोचता होगा? लोग तो होली को भीगने-भीगाने, एक-दूसरे को रंग लगाने, हुल्लड़ मचाने के त्योहार के रूप में देखते हैं। इधर रंगोली बनाने वाले और प्राकृतिक रंगों से होली मनाने वाले अपनी कला व सुरुचि से जरूर इस त्योहार को रंगोत्सव में बदल रहे हैं।
हर चीज का अपना खास रंग होता है। पेड़-पौधों, फूलों के अपने रंग होते हैं तो पशु-पक्षियों के अपने रंग। पत्थर, मिट्टी के अपने रंग। अलग-अलग रंगों से जीवन रंगीन बन जाता है। ब्लैक एंड व्हाइट के जमाने की फिल्मों में एक से एक मार्मिक कहानियां थीं, गीत-संगीत था, कला थी। सब कुछ था, मगर रंग नहीं था। शायद इसीलिए अब उन फिल्मों को रंगीन बनाकर उस कमी को पूरा किया जा रहा है।
रंगों का उत्सव मनाने का विचार कितना खास है। यह प्रकृति और जीवन की विविधता का सम्मान है। कितने प्रेमी और सहृदय लोग रहे होंगे जिन्होंने रंगों के त्योहार की शुरुआत की होगी। वे सोचते जा रहे थे।
होली-दिवाली, ईद, क्रिसमस आदि ऐसे त्योहार हैं, जो कैलेंडर के ऊपर जगमगाते रहते हैं और इनको मनाने वालों के सपनों में झिलमिलाते रहते हैं। इनके आने की प्रतीक्षा रहती है। मगर होली जैसे आकर्षक त्योहार के आने की सूचना पर वे उदास और भयभीत से हो जाते हैं।
मार्च का महीना चढ़ चुका था, लेकिन ठंड थी कि जाने का नाम नहीं ले रही थी हालांकि उन्हें यह भी लग रहा था कि ठंड एकदम न जाए तो गर्मियों का समय कम हो जाएगा और वह देर से आएगी। लेकिन ऐसा ही मौसम रहा तो होली का क्या मजा रहेगा, यह सोचकर वे उदास से हो गए।
होली का मजा तो तब है जब ठीक-ठाक सी गर्मी हो जाए तभी तो एक-दूसरे के ऊपर पानी डालने, एक-दूसरे को रंगने का कोई मतलब है। अब होली के दिनों में लगभग हर साल मौसम ऐसा ही रहता है। वातावरण में ठंडक-सी बनी रहती है, इससे होली को लेकर उत्साह नहीं बनता। पता नहीं और लोग भी इस तरह से सोचते हैं। उन्हें भी ऐसा लगता है या यह उनके दिमाग का ही फितूर है।
वे अपने बचपन के दिन याद करते हैं। होली के त्योहार तक उन दिनों ठीक-ठाक गर्म होने लगता था। उस गर्मी में एक-दूसरे के ऊपर पानी डालने का आनंद ही कुछ और होता था। वे सोचने लगे अबीर-गुलाल के साथ यह जो एक-दूसरे के ऊपर पानी डालने का रिवाज है। यह जरूर गर्मी से उत्पन्न हुआ होगा।
पहले की तुलना में मौसम में अब पन्द्रह से बीस दिन का अंतर आ चुका है। जाड़े की जो छुट्टियां सत्ताईस दिसंबर से शुरू होकर सात जनवरी तक रहती थीं अब उस दौरान उस तरह का ठंडा नहीं होता। वह ठंडा पन्द्रह-बीस दिन आगे चला गया है। इसीलिए छुट्टियां भी आगे बढ़ा दी गई हैं। हालांकि चार-पांच दिन आगे बढ़ाने से भी फर्क नहीं पड़ा है। कड़ाके की ठंड जनवरी अंत तक बनी रहती है। सरकार को ठंड व कोहरे की वजह से स्कूलों में छुट्टी करनी पड़ती है।
होली के आने पर न सिर्फ उदासी का कोहरा-सा उनके ऊपर छा जाता है बल्कि भय-सा भी लगता है। उन्हें लगता है भय की वजह से ही उदासी उनके ऊपर छा जाती होगी। क्या ठंडक ही है जो उनके भीतर होली के उत्साह को कम करती है या और कुछ वजह है?
दूसरी ओर दिवाली के आने की आहट मिलते ही उन्हें खुशी होती है। हालांकि बम-पटाखों से वे दूर हो चुके हैं। उनकी निरर्थकता भी समझ चुके हैं। घर के चारों ओर दीये व मोमबत्ती जलाने में उन्हें आनंद आता है।
पत्नी द्वारा होली की याद दिलाने से उन्हें ख्याल आया। स्त्रियां ही हैं, जो त्योहारों को जीवित रखे हुए हैं। समय से त्योहारों की तैयारी करना। उससे संबंधित रस्मों को निभाना। सब स्त्रियों का ही कार्य है। वही त्योहारों को प्राणवान व अर्थवान बनाती हैं। होली में रंगोली बनाकर, घरों में बैठकी होली का आयोजन करके तथा विभिन्न पकवान बनाकर होली को जीवंत कर देती हैं। जबकि पुरुष की भूमिका सहायक की ही होती है।
बचपन में गांव में होली की कैसी तो धूम रहती थी। चार-पांच दिन पहले से रात-दिन होली गायन की बैठकी लगने लगती थी। घरों के आंगन में आग के चारों ओर घूमते हुए पुरुष होली गाते। होल्यारों के लिए आलू के गुटके बनाते। फिर घर वालों की खुशहाली के लिए आशीष देते। स्त्रियों की अलग होली होती। होली के दिन सुबह ही सभी नौजवान तथा बड़े-बूढ़े इकट्ठे होकर घर-घर जाते। हर घर में रुककर होली गाई जाती। हर घर से गुड़ की भेली दी जाती, जिसे गांव के मंदिर में इकट्ठा होकर सबको बांटा जाता।
कोई अभद्रता नहीं करता। छुपकर न तो पानी का हमला करता, न किसी को रंग पोतता। जो होता सामने होता। कहीं आने-जाने में डर नहीं लगता था। एक-दो को छोड़कर शराब पीने वाले होली के समापन के बाद पीते।
गांव की सादगी व सरलता को छोड़ चुके उनके कस्बे में अब होली के रंग-ढंग भी बदल चुके हैं। कानफोड़ू संगीत पर लड़के नाचते हैं। एक-दूसरे को पेंट जैसे रंगों से पोतने व रंगने की होड़ लगी रहती है। दूसरी ओर अधिकांश लोगों के लिए होली शराब पीकर हुड़दंग मचाने का त्योहार हो गया है, जबकि पिछले दिनों गांव से आये उनके रिश्तेदार ने बताया था कि गांव में अभी भी होली उसी सादगी, उल्लास, परस्पर मेल-जोल व सम्मान के साथ मनाई जाती है।
इस बीच अब वे खुद सयाने लोगों की श्रेणी में आ चुके हैं। उनके समय में बड़ों का लिहाज किया जाता था, जैसे वे कोई पराए नहीं अपने ही घर के बड़े हों। अब सम्मान-लिहाज तो जैसे गायब हो गया है। कोई दुआ-सलाम नहीं। कई बार इस बेगानेपन को तोड़ने के लिए वे खुद ही किसी बहाने से लोगों से बातचीत शुरू कर देते, पर सिलसिला ज्यादा चल नहीं पाता था।
इधर वर्षों से होली को लेकर जो अनुभव हो रहे हैं वे मायूस करने वाले थे। उस बार जब वे पूरे आत्मविश्वास व खुशी के साथ होली मिलने के लिए चौराहे की ओर जा रहे थे तो एक घर की छत से बच्चों ने उनके ऊपर पानी फेंक दिया। एकाएक हुए इस हमले से वे घबरा गए। ऊपर की ओर देखा तो उनको पानी से तरबतर देखकर बच्चे खुशी से लोटपोट हो रहे थे। बच्चे ऐसी अभद्रता कर सकते हैं, ऐसा उन्होंने कल्पना में भी नहीं सोचा था। एक बार तो खूब गुस्सा आया, फिर मन ही मन खुद को समझाया कि गुस्सा करने से कुछ नहीं होने वाला। अच्छा-खासा मूड खराब हो चुका था, वहीं से घर लौट गए।
एक बार आपस में एक-दूसरे को गुब्बारे मार रहे लड़कों ने एकाएक उनको सामने देखा तो मोर्चा उनकी ओर खोल दिया। उनको लगा जैसे एकाएक वे जंगल में हिंसक जानवरों के सामने पड़ गए हैं। ऐसे में चुपचाप खड़े होने के अलावा कोई चारा नहीं था। लड़कों ने भी रहम करने के बजाय उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। यानी खेल का कोई नियम नहीं। सिर्फ जीतना मकसद रह गया हो। फिर चाहे वह दादा की उम्र के व्यक्ति के ऊपर गुब्बारे मारकर पूरा हो। फिर एक बार कभी लड़कों ने सिल्वर जैसा रंग गालों पर पोत दिया। एकदम बिफर पड़े थे वे, ‘क्या बदतमीजी है। कोई शर्म-लिहाज, कोई बड़े-छोटे का ख्याल है कि नहीं?’
भीतर से उन्हें बहुत बुरा लगा था, मगर मन मसोसकर रह गए। अधिकांश लोग पिये हुए होते। कोई चिल्ला रहा है, कोई गा रहा है, कोई जमीन पर पड़ा है। कोई भरोसा नहीं कि कब कौन कहीं से आकर हमला कर दे। तभी उन्होंने तय कर लिया था कि होली में अब घर से बाहर नहीं जाना है।
अब रह गया था लोगों के वहां बधाई को जाना और घर में आने वालों का स्वागत करना। घरों में स्वागत जाम छलकाकर होता। लोग इतनी पी चुके होते कि होशो-हवास में नज़र नहीं आते थे। ऐसे में मिलने और बातचीत का कोई अर्थ नहीं रह जाता था और इस हुल्लड़बाजी में वे खुद को अजनबी जैसा महसूस करते।
दो-तीन बार से घर में ही रहने लगे थे। सभ्य लोगों का तो ठीक था। होली को पीने-पिलाने का दिन समझने वालों को पिलाने की ड्यूटी निभानी होती। ऐसे लोग आ जाते और एक-दो करके पैग पीते जाते। फिर निरर्थक बातचीत होती। पुराने दिनों के प्रेम व्यवहार को याद किया जाता। वे सोच-सोचकर कुढ़ते रहते कि होली जैसे शानदार त्योहार का लोगों ने क्या हाल बना दिया है।
‘क्या बात, होली का नाम सुनते ही आप को सांप क्यों सूंघ जाता है? कहां खो गए?’ पत्नी ने उन्हें टोका।
अचानक उन्हें होश सा आया। इतनी देर में न जाने क्या-क्या सोच लिया और कहां-कहां हो आए?
‘इस बार बच्चे भी आने को कह रहे थे। कितने वर्ष हो गए उनके साथ होली खेले।’ खुशी से चहकते हुए उसने कहा।
‘चलो ये अच्छा है। तुम्हें साथ मिल जाएगा। मेरा इस बार यहां रुकने का मन नहीं है। सोच रहा हूं, इस बार गांव जाकर होली मनाऊंगा।’ उन्होंने दृढ़ता से अपनी बात कही।
‘बच्चे यहां आ रहे हैं और आप गांव जाने की बात कर रहे हैं।’ पत्नी ने नाराज होते हुए कहा।
‘यहां अब होली कहां होती है? मैं असली होली में शामिल होना चाहता हूं।’ उन्होंने निर्णायक स्वर में कहा।
इस घोषणा के बाद उनके चेहरे पर खुशी फैल गई। भय और उदासी गायब हो गई।