विरोधी नहीं, एक-दूसरे के पूरक थे नेहरू-पटेल
विश्वनाथ सचदेव
हाल ही में देश ने सरदार वल्लभभाई पटेल की 149वीं जयंती मनायी है। बड़े आदर और सम्मान के साथ स्वतंत्र भारत के निर्माण में उनके योगदान को याद किया गया है। इस संदर्भ में हुए आयोजनों में जहां एक ओर पांच सौ से अधिक देसी रियासतों को जोड़कर एक नये भारत के निर्माण में सरदार पटेल की भूमिका को सराहा गया, वहीं यह बात भी कहना ज़रूरी समझा गया कि उन्हें उनका उचित देय नहीं मिला है, जबकि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का बढ़ा-चढ़ा कर कुछ ज़्यादा ही बखान किया जाता है। सच्चाई तो यह है कि इन दोनों महापुरुषों ने नये भारत की नींव रखने में जो भूमिका निभायी है उसे कमतर आंकने की किसी भी कोशिश का समर्थन नहीं होना चाहिए। दोनों का योगदान अप्रतिम है। यह बात दूसरी है कि अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए लोग ऐसी कोशिशें लगातार कर रहे हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में सरदार पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा बनवाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। सरदार की जन्म जयंती को देश एकता दिवस के रूप में मनाता है, यह भी प्रधानमंत्री की पहल पर ही हुआ है। लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि देश के दो सपूतों, नेहरू और पटेल, को एक-दूसरे के विरोधी के रूप में दिखाया जाये? सवाल यह भी उठता है कि क्या सचमुच इन दोनों में कोई प्रतिस्पर्धा रही थी? यह बात भी अक्सर कही जा रही है कि नेहरू की जगह यदि सरदार पटेल देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो स्वतंत्र भारत का नक्शा कुछ अलग ही होता। पटेल के प्रशंसक और नेहरू के आलोचक इस ‘अलग’ को अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू और पटेल दोनों में कई मुद्दों पर मतभेद था। कश्मीर और हैदराबाद का प्रकरण एक ऐसा मुद्दा था। चीन के प्रति नेहरू के दृष्टिकोण से भी सरदार पटेल सहमत नहीं थे। पर इसका अर्थ एक-दूसरे का विरोधी होना नहीं है। सच्चाई तो यह है कि दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक थे, दोनों देश का हित चाहते थे और दोनों एक-दूसरे के महत्व को स्वीकार करते थे। दोनों ने कुछ मुद्दों पर असहमति छिपाने का प्रयास कभी नहीं किया। इस असहमति को एक-दूसरे के प्रति शत्रुता के भाव के रूप में देखना या दिखाना दो महापुरुषों की बौद्धिक क्षमता पर सवालिया निशान लगाना होगा।
नेहरू और पटेल को एक-दूसरे का विरोधी निरूपित करने वाले इस बात को बार-बार दुहराते हैं कि कांग्रेस पार्टी की प्रांतीय समितियों ने एकमत से पटेल को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाने की इच्छा जाहिर की थी, और यह भी सही है कि तब जो कांग्रेस का अध्यक्ष बनता वही स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री भी होता। सही यह भी है कि तब हस्तक्षेप करके महात्मा गांधी ने नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया था। ज्ञातव्य है कि यह काम पर्दे के पीछे से नहीं हुआ था। गांधी ने अपना पक्ष बड़ी साफगोई से सामने रखा था, और गांधी के कहने पर ही सरदार पटेल ने तब कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनने की प्रक्रिया से स्वयं को अलग कर लिया था। और नेहरू के लिए स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया था।
यहीं इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में पटेल को शामिल करने, न करने, पर नेहरू के मन में कोई हिचक नहीं थी। तब अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए नेहरू ने जो पत्र पटेल को लिखा था, उसमें उन्होंने पटेल को ‘अपनी कैबिनेट का सबसे मज़बूत स्तंभ’ कहा था। नेहरू पटेल की क्षमता-योग्यता से अच्छी तरह परिचित थे और मंत्रिमंडल में उनकी आवश्यकता को पूरी तरह समझते थे। नेहरू के उस पत्र के उत्तर में पटेल ने जो लिखा अब वह भी सार्वजनिक हो चुका है अपने उस पत्र में सरदार पटेल ने नेहरू को लिखा था, ‘मैं जीवन भर आपको समर्थन दूंगा’। पटेल ने उस पत्र में यह भी कहा था कि ‘उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं आपका पूरा साथ दूंगा, जिसके लिए और किसी ने इतना त्याग नहीं किया जितना आपने किया है। हमारा साथ अटूट है, और यही हमारी ताकत है।’
हमारे इतिहास का एक सच यह भी है कि जिस दिन महात्मा गांधी की हत्या हुई, उसी दिन पटेल राष्ट्रपिता से मिले थे और नेहरू के साथ रिश्तों के बारे में उनमें लंबी बातचीत हुई थी। इस बातचीत में वे सब गिले-शिकवे धुल गये थे जो तब हवा में तैर रहे थे। उसी शाम नेहरू को भी महात्मा गांधी से मिलना था। काश! वह मीटिंग हो पाती तो बातें और साफ होकर सामने आ जातीं। पर यह नहीं हो पाया। गोडसे उन खतरनाक ताकतों के प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहा था जिन्हें उन सपनों से नफरत थी जो गांधी, नेहरू और पटेल स्वतंत्र भारत के लिए देख रहे थे।
आज पटेल और नेहरू को एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप में सामने रखकर अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की कोशिशें हो रही हैं। पटेल को नेहरू-विरोधी बताने वाले यह भी कह रहे हैं कि सरदार नेहरू की तरह मुसलमानों के पक्ष में नहीं थे। वह यह भूल जाते हैं कि तब सरदार पटेल देश के गृहमंत्री थे और इस रूप में अपनी भूमिका के प्रति पूर्णत: सजग थे। आज़ादी मिलने के तत्काल बाद राजधानी दिल्ली में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों की आग को बुझाने के लिए तब उन्होंने वह सब किया जो किसी भी देशभक्त नेता को करना चाहिए था। आधी रात को दंगइयों के बीच पहुंचे थे सरदार पटेल। उनके लिए देश का हर नागरिक समान था। हर नागरिक की सुरक्षा उनका दायित्व था, कर्तव्य भी।
जहां तक पटेल और नेहरू के रिश्तों का सवाल है पटेल अच्छी तरह जानते थे कि 562 रियासतों को एक देश का हिस्सा बनाने में वह भले ही सफल हो गये हों, पर देश को एक रखने में नेहरू की योग्यता निर्विवाद है। नेहरू को सारे भारत का समर्थन प्राप्त था। वे एक ऐसे हिंदू थे जिन पर मुसलमानों का भरोसा था; नेहरू उच्च वर्ण के ऐसे ब्राह्मण थे जिन्हें वंचित समाज की जातियों का भी प्यार मिला था। अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में भी नेहरू की योग्यता पटेल समझते थे। नेहरू भी इस बात को भली-भांति समझते थे कि पटेल की प्रशासकीय योग्यता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इसीलिए उन्होंने रजवाड़ों को भारत के झंडे तले लाने का काम पटेल को सौंपा था। नेहरू यह भी जानते थे कि कांग्रेस पार्टी को एकजुट रखने में पटेल की कोई बराबरी नहीं कर सकता।
इसलिए सवाल नेहरू बनाम पटेल का नहीं नेहरू और पटेल का है। दोनों एक-दूसरे की महत्ता को समझते थे। एक-दूसरे की योग्यता-क्षमता से परिचित थे। आज भी राजनीतिक नेतृत्व में उसी समझ की आवश्यकता है, जो नेहरू और पटेल ने मिलकर दिखाई थी। उन्हें एक-दूसरे का विरोधी बताकर नहीं, एक-दूसरे का पूरक बताकर ही देश का हित सध सकता है। यह बात देश के नेतृत्व को समझनी होगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।