निठारी का नकार
जब नोएडा के निठारी गांव में बच्चियों व महिलाओं की क्रूरता से की गई सिलसिलेवार हत्याओं का मामला उजागर हुआ तो पूरा देश स्तब्ध था। इन हत्याओं की जो भयावह दास्तां मीडिया में तैरती रही, उसने हर संवेदनशील इंसान को झकझोरा था। बाद में सीबीआई अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर नौकर सुरेंद्र कोली और उसके नियोक्ता मोनिंदर सिंह पंधेर को मौत की सजा सुनाई थी। देश मानकर चल रहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे के फैसले में भी यह कड़ी सजा बरकरार रहेगी। इस भयावह कांड में सोमवार को आए फैसले ने एक बार फिर देश को स्तब्ध किया। अदालत ने अकाट्य सबूतों के अभाव में उन दोनों अभियुक्तों को बरी कर दिया, जिन्हें निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। जाहिर है इस फैसले से देश में निराशा पैदा हुई है। जांच एजेंसी तथा न्याय व्यवस्था की सार्थकता पर सवाल उठे हैं। लेकिन असली सवाल ये है कि आज से सत्रह साल पहले वीभत्स कांड के उजागर होने के बाद बरामद उन्नीस बच्चियों व महिलाओं के कंकालों का अपराधी कौन है? जब ये भयावह मामला उजागर हुआ था तो मृतकों के कपड़े व चप्पल आदि आरोपियों के यहां से बरामद होने की बात सामने आई थी। समझा जा रहा था कि इतने साक्ष्यों के बाद अभियोजन पक्ष ने मजबूत सबूतों के आधार पर अपराधियों को दंड दिलाने की पुख्ता व्यवस्था की होगी। लेकिन विडंबना देखिए ये साक्ष्य अदालत की कार्रवाई में टिक नहीं पाये। सवाल सीबीआई की नाकामी के भी उठे हैं। ऐसे ही सवाल आरुषि तलवार दोहरे हत्याकांड में भी उठे थे। बहरहाल, डेढ़ दशक से अधिक समय के बाद निठारी कांड ने फिर देश को सन्न किया है। लोग पूछ रहे हैं यदि ये आरोपी निर्दोष हैं तो फिर एक नाले से बरामद कंकाल किस अपराधी का कृत्य था। दरअसल, हाईकोर्ट का मानना है कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे अपराध साबित करने में विफल रहा है। फिर सवाल यह है कि गाजियाबाद की सीबीआई अदालत ने किस आधार पर अपराधियों को हत्या,बलात्कार, अपहरण व साक्ष्य मिटाने के आरोप में दोषी माना।
जाहिर है पीड़ित परिवारों के लोग अदालत के फैसले के बाद सदमे में हैं। दरअसल, अपराधियों का शिकार बनी बच्चियां व महिलाएं गरीब परिवारों से थीं। जिनमें अधिकांश पश्चिम बंगाल व बिहार आदि राज्यों से आए श्रमिक थे। इस फैसले के बाद फिर उस धारणा को बल मिला है कि देश में गरीबों को न्याय मिलना मुश्किल हो गया है। निश्चित तौर पर अभियोजन पक्ष ने मामले में संवेदनहीनता दर्शायी है। जब यह मामला उजागर हुआ था तब भी उत्तर प्रदेश सरकार के एक कैबिनेट मंत्री ने इन भयावह हत्याओं को छोटी-मोटी घटना बताया था। वहीं दूसरी ओर पुलिस ने गरीब श्रमिकों के बच्चे लापता होने के मामले को पहले गंभीरता से नहीं लिया था। वहीं तब भी पंधेर व कुछ पुलिसकर्मियों की मिलीभगत के आरोप लगे थे, जिसकी जांच होनी बाकी है। निस्संदेह, जघन्य हत्याकांडों के आरोपियों का अदालत में बरी होना जांचकर्ताओं पर भी उंगली उठाता है। जो हमें बताता है कि कैसे भयावह सच्चाई भी घटिया जांच का शिकार बन जाती है। कहना कठिन है कि यह परिणाम सीबीआई की उदासीनता का नतीजा है या न्यायिक व्यवस्था के छिद्रों का लाभ अभियुक्तों ने उठाया है। जिसके चलते न केवल आरोपियों की फांसी की सजा खत्म हुई बल्कि अभियुक्त बरी भी हो गये। इसके बाद पीड़ित परिवारों की नाराजगी सामने आना स्वाभाविक ही है। ये फैसला सीबीआई के लिये भी सबक है कि दलीलों व सुबूतों में संदेह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। यह भी कि देश में यह संदेश न जाए कि गरीब अन्याय झेलने को अभिशप्त हैं। जैसा कि कहा जा रहा है कि सीबीआई इस मामले को शीर्ष अदालत में चुनौती देगी, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि सीबीआई अकाट्य सबूतों के साथ आगे बढ़ेगी। ताकि देश में सीबीआई की नाकामी का संदेश न जाए। इस संभावना पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्या इस जघन्य हत्याकांड की नये सिरे से जांच संभव है?