नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता
शेर सिंह सांगवान
गत 26 नवंबर, 2020 से हजारों किसान तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए दिल्ली के बार्डर्स पर विरोध कर रहे हैं। इन कानूनों को कृषि मूल्य नीति के कार्यान्वयन से उभरने वाले मुद्दों से जोड़ने का प्रयास यहां किया गया है। यह नीति भारतीय खाद्य निगम (भाखानि) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (नसमू) पर गेहूं और चावल की खरीद के माध्यम से लागू की जाती है। जबकि दलहन और तिलहन की खरीद, राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड (नेफेड) द्वारा नसमू पर एक मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस/मूसयो) के तहत की जाती है।
वर्तमान में, हमारे पास गेहूं और चावल का विशाल भंडार है, जो कि हमारी बफर आवश्यकता का लगभग 2-3 गुना है, जबकि देश अभी भी दालों और विशेष रूप से तिलहनों का लगभग 80000 करोड़ रुपये का आयात प्रति वर्ष कर रहा है। असमान उत्पादन के लिए, गेहूं और चावल की तुलना में दालों और तिलहनों के लिए पक्षपाती खरीद-नीति काफी हद तक इसका कारण है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। भाखानि द्वारा गेहूं और चावल बिना किसी मात्रा की सीमा के किसानों से नसमू पर खरीदे जाते हैं, जबकि दालों और तिलहनों की खरीद नेफेड द्वारा प्रति किसान 25 क्विंटल की अधिकतम सीमा तक की जाती है और कुल खरीद भी फसल-उत्पादन का अधिकतम 25 फीसदी है। नेफेड द्वारा खरीद केवल उसी वर्ष होगी, जब उत्पादन अधिशेष होगा और कीमतें नसमू से नीचे होंगी। गेहूं और चावल की खरीद प्रति वर्ष 100 प्रतिशत पंजाब और हरियाणा में की जाती है और कुछ अन्य राज्य हाल ही में आंशिक खरीद के साथ शामिल हुए हैं।
गेहूं और चावल खरीदने वाले राज्य खरीद-मूल्य का लगभग 4 प्रतिशत शुल्क, उपकर आदि के रूप में दावा करते हैं तथा आढ़ती भाखानि से 2.5 प्रतिशत कमीशन और सफाई के लिए खर्च लेते हैं। जबकि, मूसयो को लागू करने में, संबंधित राज्य को नेफेड द्वारा खरीदी जाने वाली मात्रा पर बाजार शुल्क, उपकर आदि का त्याग करना पड़ता है। यहां तक कि कमीशन एजेंट भी शामिल नहीं होते और राज्य को मामूली शुल्क पर खरीद की व्यवस्था करनी पड़ती है। गेहूं और चावल की खरीद करने वाले राज्यों में किसान-सह-आढ़तियों ने मजबूत किसान-यूनियनों का गठन किया है जो फसलों के गुणवत्ता मानदंडों, ऋणों आदि की छूट के लिए लड़ाई लड़ते हैं।
व्यक्तिगत मात्रा की सीमा और अन्य शर्तों के बावजूद, नेफेड द्वारा खरीफ 2017 के बाद से दालों और तिलहनों की खरीद बहुत अधिक हुई है और इससे 12 राज्यों के किसान लाभान्वित हुए हैं। इसके अलावा, मूसयो के तहत लाभार्थी किसान कम सिंचाई वाले गरीब राज्यों से हैं। मूसयो के तहत खरीद का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यह था कि नेफेड खरीद के बाद बाजार मूल्य बढ़ेगा लेकिन अध्ययन में इसे गलत पाया गया है। हमारे नसमू न केवल घरेलू बाजार की कीमतों से अधिक हैं अपितु अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय कीमतों को भी पार कर रहे हैं।
नसमू पर खरीद का सबसे परेशान करने वाला परिणाम फसल के समय खरीद में व्यापारियों, स्टॉकिस्ट और संसाधकों (प्रोसेसर) की गैर-भागीदारी था। व्यापारियों ने बताया कि वे नेफेड के ज्ञात भंडार से नसमू से काफी कम कीमत पर खरीदारी कर रहे हैं। संसाधकों को नेफेड से खरीद कर लगभग 1000 से 2000 रुपये प्रति क्विंटल का लाभ हो रहा था जबकि किसानों को नसमू से 500 से 700 रुपये अधिक मिल रहे थे। दोनों मामलों में, 2016 से 2019 के दौरान नेफेड को नुकसान के लिए भारत सरकार ने लगभग 2000 रुपये प्रति क्विंटल भरपाई की।
अब तक अनुत्तरित प्रश्नों में से एक है, पार्टियों और यहां तक कि किसान संगठनों के साथ व्यापक चर्चा के बिना, 5 जून, 2020 को अध्यादेशों के माध्यम से विपणन सुधार लाने क्यों आवश्यक थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत स्टॉक-सीमा में ढील प्रोसेसर और व्यापारियों को खरीद में शामिल करने के लिए एक प्रोत्साहन हो सकती है। बिना किसी कर/उपकर के एपीएमसी के बाहर ‘व्यापार क्षेत्र’ की अवधारणा प्रोसेसरों के लिए एक और प्रोत्साहन थी क्योंकि इससे उन्हें आढ़ती कमीशन, राज्य कर, परिवहन लागत और लोडिंग-अनलोडिंग शुल्क आदि को बचत होगी।
इसके अलावा, संदर्भ मूल्य के रूप में नसमू का उल्लेख न करने से किसानों की आशंका है कि भारत सरकार नसमू-प्रणाली को खत्म कर सकती है। किसान केवल कानूनों को निरस्त करने पर ही जोर दे रहे हैं और नसमू को कानूनी रूप देने की भी मांग कर रहे हैं ताकि इससे कम पर खरीदारी को दंडनीय बनाया जा सके। सरकार ने पहले की तरह नसमू पर खरीद का आश्वासन दिया है लेकिन कानूनन नसमू दुनिया में कहीं भी लागू नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियमों के क्रियान्वयन को डेढ़ साल के लिए स्थगित कर दिया है। किसान किसी समझौते पर पहुंचने के लिए स्थगन अवधि बढ़ाने की मांग कर सकते हैं। यह किसानों और सरकार दोनों को नये सिरे से सोचने का समय देगा।