विश्वास बहाली जरूरी
मणिपुर में एक माह पहले दो समुदायों के बीच शुरू हुई हिंसा की घटनाओं का पटाक्षेप न हो पाना बताता है कि राज्य में विवाद व अविश्वास की जड़ें गहरी हैं। वहीं अलग-अलग नस्ली समूहों के बीच शांति स्थापना के मकसद से बनायी गई शांति समिति की गठन प्रक्रिया को लेकर उठ रहे सवाल समस्या की जटिलता की ओर इशारा कर रहे हैं। जाहिर है कि कूकी समुदाय के लोगों का भरोसा जीते बिना शांति के प्रयास सिरे चढ़ाने मुश्किल ही होंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस गैर जरूरी विवाद में अब तक सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और पचास हजार के करीब लोग बेघर हो गये हैं। नीति-नियंताओं को ध्यान रखना चाहिए कि यह सीमावर्ती राज्य कई दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। यहां के टकराव की तपिश निकटवर्ती राज्यों में भी फैल सकती है। चिंता की बात यह है कि कूकी समुदाय के लोग शांति समिति के पैनल में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह व उनके समर्थकों की उपस्थिति का विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि कूकी समुदाय के खिलाफ अभियान चलाने वाले संगठन के लोग भी शांति समिति में शामिल किये गये हैं। वहीं कूकी समुदाय के कुछ लोगों का कहना है कि उनकी सहमति के बिना उन्हें शांति समिति में शामिल किया गया है। बहरहाल, कुल मिलाकर मणिपुर का यह संघर्ष राष्ट्र के संघीय ढांचे की भावना के विपरीत दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा। केंद्र सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि राज्यपाल के नेतृत्व वाली समिति के 51 सदस्यों को लेकर सभी पक्षों की सहमति बने। वहीं कूकी समुदाय के लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार हस्तक्षेप करके वार्ता के लिये अनुकूल वातावरण बनाने में मदद करे। कूकी समुदाय के विरोध के मूल में एक आरोप यह भी है कि उनके खिलाफ अभियान चलाने वाले एक नागरिक समूह के सदस्यों को शांति समिति में शामिल किया गया है।
दरअसल, मणिपुर में हुए हालिया संघर्ष के मूल में मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा दिया जाना बताया जाता है। इस निर्णय के विरोध स्वरूप उपजे विवाद के चलते ही राज्य हिंसा की चपेट में आ गया। दरअसल, करीब 53 फीसदी आबादी वाले मैतेई समुदाय के पास राज्य में महज दस फीसदी जमीन है जबकि चालीस फीसदी आबादी वाले कूकी समुदाय के पास 90 फीसदी जमीन है। यह असंतुलन अकसर दोनों समुदायों में टकराव का कारण बनता रहा है। यह पहले से ही कयास लगाये जा रहे थे कि मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा दिये जाने के बाद राज्य में अशांति का माहौल बन सकता है। कालांतर ऐसा हुआ भी। सतही तौर पर राज्य में हिंसक वारदातें थमी नजर आती हैं लेकिन इस विवाद का पटाक्षेप जल्दी हो पायेगा, ऐसे आसार नजर नहीं आते। आबादी और जमीन के असंतुलन का विवाद तुरत-फुरत थमता नजर नहीं आता है क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में इस अनुपात में बड़ा परिवर्तन संभव भी नहीं है। केंद्रीय गृहमंत्री के हस्तक्षेप व सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाने के बावजूद सतही शांति तो नजर आती है। सवाल है कि यह स्थिति कब तक कायम रह सकती है। वह भी तब जब मैतेई समुदाय आरक्षण को अपने जीवन के लिये जरूरी बता रहा है तो आदिवासी समुदाय इसे क्षेत्र में असंतुलन पैदा करने वाला बता रहा है। कूकी समुदाय इसे अपने अस्तित्व के लिये खतरा बताता है। जाहिर है इस जटिल समस्या का समाधान दोनों पक्षों के बीच विश्वास बढ़ाकर ही किया जा सकता है। यह विश्वास दोनों पक्षों के बीच बातचीत बनाये रखने से ही बढ़ेगा। यह कार्य सुरक्षा बलों की तैनाती से भी संभव नहीं होगा क्योंकि क्षेत्र में चरमपंथियों की सक्रियता का इतिहास भी रहा है। ऐसे में सरकारों का दायित्व बनता है कि पुलिस-प्रशासन बिना किसी पक्षपात के कानून तोड़ने वालों के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई करें। वहीं कूकी समुदाय की उस बात पर केंद्र सरकार को ध्यान देना चाहिए जिसमें शांति समिति में केंद्र के अधिकारियों की बड़ी भूमिका रखने की मांग की जा रही है।