हिमालयी टीस को महसूस करने की जरूरत
उत्तराखंड में जून, 2013 की आपदा को हर समय याद किया जायेगा। खासकर जब इस आपदा को एक दशक भी पूरा हो गया है। सरकारों के पुनर्निर्माण व पुनर्वास कार्यों का लेखा-जोखा तो लगातार लिया ही जा रहा है। नैनीताल हाईकोर्ट में भी यह मसला जाता रहा है। वर्ष 2014 में कपाट बन्द होने के बाद जीवट वाले लोग केदारनाथ में ही रहकर बर्फीले तूफानों में काम करते रहे थे। इसी दौरान उन्होंने वहां ऐसी हवाई पट्टी भी बनाई जहां भारतीय वायुसेना का विशालकाय भारवाहक हेलिकॉप्टर उतर सकता था। यहां आपदाओं का सामना करने की रणनीति लगातार तय की जाती है। इधर 2023 में क्षेत्र में हिमस्खलन भी हुए हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से ही सही, सहमे हुए लोग, आगे फिर कुछ ऐसा ही न घट जाये, की आशंका में जी रहे हैं। बहस इस पर भी हो रही है कि क्या 2013 की भयावह आपदा से हमने कुछ सीखा भी या नहीं। या केवल यंत्रवत केदारपुरी को सुविधायुक्त भव्यता वाला कस्बा बनाने में ही लगे रहे। हम में जनता और सरकार दोनों शामिल हैं।
वर्ष 2013 की आपदा के बाद चमोली, रुद्रप्रयाग जिलों में आपदा क्षेत्र में काम करने वालों व आपदा झेले लोगों के बीच विभिन्न भूमिकाओं में रहने, अध्ययन व सर्वेक्षणों में शामिल रहने के अवसर भी मिले थे। इन्ही परिप्रेक्ष्यों में ये तथ्य रेखांकित करना चाहिए कि कुछ मामलों में, कोई चाहे या न चाहे, आपदा ने सरकार व लोगों को सीखने के लिए तब मजबूर भी किया था। लेकिन नीतियों, कार्यशैलियों व सोच में वे ज्यादा दिन न बनी रह पाईं। यह श्मशान वैराग्य जैसा था। ये, वो बातें हैं, जिन्हें सामाजिक कार्यकर्ता या विशेषज्ञ जब पहले कहते थे, तो कोई ध्यान नहीं देता था। यहां कुछ बातों का उल्लेख जरूरी है, जिन्हें धरातल में महसूस किया गया।
छिन्न-भिन्न आजीविका को पटरी पर लौटाने के लिए क्या कार्यक्रम किये जायें, ये जानने के लिए आज भी यदि आप आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जायें तो एक स्वर से आप ये सुनेंगे कि हम ऐसी आजीविका अपनाना चाहते हैं, जो केवल तीर्थयात्रियों के भरोसे न हो। मौसम की मार या कोरोना जैसी महामारियां स्थानीय लोगों के नियंत्रण में तो नहीं हैं। यहां यात्रा काल में मौसम क्या गुल खिलायेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता है। बेमौसमी बर्फबारी होती रही है।
स्थानीय लोग पहले यात्रियों से यात्रा सीजन में ही इतना कमाने पर भरोसा करते थे, जो उन्हें बाकी के माहों के लिए पर्याप्त रहे। किन्तु 2013 की आपदाओं में खच्चरों को गंवा चुका खच्चर वाला भी फिर से खच्चर लेने के पहले इसका भी हिसाब-किताब कर रहा था कि, उसके खच्चरों के लिए आस-पास में ही कितना काम मिल जायेगा। अन्यथा, यात्रियों के भरोसे न रहकर वह अपना कोई दूसरा काम करने की सोच रहा था।
चूंकि दुखद स्थितियों में अब केदार क्षेत्र के कई परिवारों को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई थी तो, इसलिए भी तब उन्होंने आजीविका के उन्हीं कार्यों को अपनाना पसन्द किया था, जिनमें उन्हें बाहर न जाना पड़े। गाय-भैंस पालन, टेलरिंग, बागवानी, दुकान चलाने जैसे काम उन्होंने अपनाये थे। इनको दक्षता देने व इनके समूह बनाने के जो काम होने चाहिए थे, वे नहीं हुए क्योंकि वे परियोजनाओं पर निर्भर थे।
इसी प्रकार पहले तक जब उत्तराखंड के आंदोलनकारी भोग-विलास वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन व तीर्थाटन को बढ़ावा न देने के लिए चेताते थे तो कोई नहीं सुनता था, परन्तु जून, 2013 की आपदा के बाद स्थानीय लोग ही, जिनमें व्यवसायी भी थे, कहते हुए मिल रहे थे कि यह तो होना ही था। क्योंकि, जो कुछ तीर्थों में नहीं होना चाहिए था, उसको भी करने में यहां परहेज नहीं होता था। आज खुद ही वे अपने व्यावसायिक आचरण को भी सवालों के घेरे में रखने से नहीं हिचकिचा रहे हैं। अवैध शराब की खेपें आज भी क्षेत्र में पकड़ी जाती हैं। तीर्थ यात्रा में पर्यटन का कोण तो आज और ही ज्यादा विस्तार ले रहा है।
पिछली आपदा ने मजबूरन लोगों को इस तथ्य को भी देखने को मजबूर किया है कि जहां-जहां नदियों के तटों पर अतिक्रमण हुआ, और जहां-जहां सड़कों व परियोजनाओं का मलबा पड़ा, वहां नदियों ने विनाश भी किया व अपनी राह भी बदली। अतः एक तरफ तो नदियों को उनकी जमीन लौटानेे व उनके अविरल बहने के पक्ष में, और दूसरी तरफ मशीनों से मनमानी, पहाड़ों को अस्थिर करने वाले कटानों के विरुद्ध जनमत बना है। तब कई जगहों पर लोग जेबीसी मशीनों द्वारा पहाड़ों के बेतरतीब कटान के विरुद्ध खड़े हुए थे। खास बात यह रही कि ऊपर के बसे गांव वालों ने भी नीचे की सड़क कटानों का कई जगह विरोध किया था क्योंकि, इससे वे अपने खेतों व मकानों की नींवों के कमजोर होने व ढहने का खतरा देख रहे थे।
वैकल्पिक जंगल के रास्तों, पैदल मार्गों को ढूंढ़ने, उनको मजबूत करने, जलस्रोतों को पुनः संरक्षित करने, पलायन रोकने, यात्रियों की संख्या सीमित करने, उनको पंजीकृत करने, मौसम की चेतावनी पर यात्रा को सीमित करने के सरकार के आज होते काम भी आपदा से मजबूरी में ली गई सीख ही मानी जा सकती है। किन्तु खेद है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कम से कम हवाई पटि्टयों की बाढ़ लाने व भारी सीमेंट कंक्रीट, इस्पातों के निर्माण से सरकार परहेज नहीं कर रही है। इनसे स्थानीय स्तर पर कुछ लाभ नहीं होने वाला है। उल्टे जमीन व पर्यावरण को खतरे बढ़ेंगे ही।
जरूरत है कि आधुनिक तीर्थधामों को पर्यटन स्थल बनाने के सपने जमीन पर उतारने के सापेक्ष 2013 की केदार त्रासदी के बाद जो सततता के विकास की चाह आम प्रभावित स्थानीयों में उपजी थी, उसकी हकीकत भी जमीन पर उतारें। हिमालयी क्रंदन को अरण्य रोदन होने से बचायें।