यात्राओं के विशद चित्रण की जरूरत
अलका कौशिक
यात्रा-लेखन या घुमक्कड़ साहित्य की हिंदी भाषा को जितनी दरकार है, उस मात्रा में लेखन सामने नहीं आ रहा और जो छपकर बाज़ारों में पहुंच रहा है उसमें मुट्ठीभर ही अपनी छाप छोड़ पाने में कामयाब है। ऐसा नहीं है कि यात्राओं का अकाल है, लेकिन उन यात्राओं का विशद चित्रण प्रस्तुत करने वाले साहित्य का टोटा बना हुआ है। ऐसे में बीते दिनों ‘यात्राओं के इंद्रधनुष’ हाथ लगी तो उत्साहपूर्वक पढ़ने का जतन शुरू हुआ। देशभर के अनेकानेक स्थलों की सैर, उन तक पहुंचने के तौर-तरीके, मंजिल पर पहुंच जाने के बाद के अनुभवों और यहां तक कि उन यात्राओं पर निकलने से पूर्व की तैयारियों पर भी इस यात्रा-वृत्तांत की लेखक जोड़ी ने ईमानदारी से कलम चलायी है।
हिमाचल के शिवालिक जीवाश्म पार्क की सैर के साथ पुस्तक की शुरुआत कर लेखक जोड़ी उम्मीद बंधाती है कि वे देश के चिर-परिचित, रटे-रटाए, घिसे-पिटे पर्यटक ठिकानों से कहीं दूर तक ले जाने की तैयारी के साथ आए हैं। लेकिन पहले ही अध्याय के बाद यह उम्मीद टांय-टांय फिस्स साबित हो जाती है क्योंकि अब उनकी गाड़ी मोरनी हिल्स की ओर मुड़ जाती है, यहां से मैक्लोडगंज, धर्मशाला जैसे टूरिस्ट्स ठिकानों पर लेखन आगे बढ़ता है।
आस्था और बलिदान की नगरी अमृतसर पर लेखन अच्छा बन पड़ा है। इधर आप सोचते हैं कि शायद पंजाब पर कुछ और सामग्री पढ़ने को मिलेगी मगर लेखक जोड़ी अब पाठकों को राजस्थान की ऐतिहासिक धरती पर ले जाती है। यहां पहुंचते-पहुंचते आप खुद से सवाल पूछते हैं कि यात्रा-साहित्य के मायने निजी डायरी के पन्नों को पुस्तकाकार रूप देना होता है या सफर में रहते हुए मन में जो कुछ भी आया वही लिख देने का नाम है? कौन-सा स्मारक कब बना, कब किस प्रतिमा का अनावरण हुआ, समुद्र तट से कितनी ऊंचाई पर कौन-सा हिल स्टेशन है या किस बावड़ी के निर्माण में कितनी दौलत खर्च हुई, अगर इसे ही यात्रा-लेखन कहते हैं तो यह सब तो इंटरनेट पर इफरात में बिखरा हुआ है। सूचनाओं का अम्बार यात्रा साहित्य नहीं होता और न ही इस प्रकार की बोझिल जानकारी से आधुनिक युग के उन पाठकों के दिलों में उतरा जा सकता है जिनकी हथेलियों में इंस्टाग्राम की ताकत समा चुकी है। यूट्यूबर्स और ब्लॉगर्स के कैमरों से टक्कर लेना भले ही यात्रा-लेखन का ध्येय नहीं है, लेकिन शब्दों से खेलते हुए अपने सफर की तासीर का आस्वादन पाठकों को कराना जरूरी है।
भाषा के स्तर पर काफी कुछ बेहतर हो सकता था, बशर्ते प्रकाशक अपने तईं उपलब्ध टूल्स यानी संपादन और प्रूफ-रीडिंग के इस्तेमाल को लेकर सचेत और ईमानदार रहते। कहीं-कहीं कुछ तथ्यात्मक त्रुटियां पाठक को ‘मिसलीड’ कर सकती हैं। मसलन, हैदराबाद की रामोजी फिल्म-सिटी की तुलना लॉस एंजेल्स में हॉलीवुड से करना।
कुल-मिलाकर, यात्राओं के इंद्रधनुष में कुछ सफरी मंजिलों का लेखा-जोखा जरूर है लेकिन लेखन शैली में रोचकता, नयापन नदारद है।
पुस्तक : यात्राओं के इंद्रधनुष लेखक : डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’ एवं अनिता शर्मा ‘स्नेही’ प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ : 240 मूल्य : रु. 250.