For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

नजीर का फैसला

07:02 AM Mar 05, 2024 IST
नजीर का फैसला
Advertisement

देश की शीर्ष अदालत ने एक बार फिर साबित किया कि वह सही मायनों में देश में स्वच्छ और पारदर्शी लोकतंत्र की रखवाली करने वाली संस्था है। जब शीर्ष अदालत ने महसूस किया कि उसके पहले दिए गए फैसले की विसंगति से लोकतंत्र को हानि हो सकती है तो पहले दिये फैसले को भी पलट दिया। जनतंत्र की परिभाषा को अमली-जामा पहनाते हुए शीर्ष अदालत ने तय कर दिया कि आम आदमी की तरह ही सांसदों व विधायकों को रिश्वत के मामले में छूट के लिये कोई विशेषाधिकार काम नहीं करेगा। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों वाली बेंच ने एक मामले में निर्णय सुनाया कि देश की संसद अथवा विधानमंडल में भाषण या वोट के लिये रिश्वत लेने के मामले में सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार के अंतर्गत इम्यूनिटी नहीं दी जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि किसी प्रकरण में कोई सांसद अथवा विधायक घूस लेकर किसी मामले में वोट या सदन में लक्षित भाषण देते हैं तो उन पर अदालत में आपराधिक मामला चलाया जा सकता है। कोर्ट ने माना कि संविधान के तहत मिला विशेषाधिकार सदन को सामूहिक रूप से सुरक्षा प्रदान करता है। ताकि जनप्रतिनिधि जनहित में बेखौफ होकर अपनी बात कह सकें और निर्णय ले सकें। इस बाबत अदालत ने माना कि रिश्वत व भ्रष्टाचार लोकतंत्र को घुन की तरह खोखला कर देते हैं। दरअसल, ऐसे मामलों में वर्ष 1998 में आए एक फैसले को जनप्रतिनिधि ढाल बनाते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तब पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव सरकार बचाने के मामले में सांसदों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगे थे। मामला शीर्ष अदालत पहुंचा था। तब अदालत ने जो फैसला दिया था वह ऐसे प्रकरणों को लेकर फैसले में विसंगति पैदा करने वाला था। उस समय पांच जजों की पीठ ने तीन-दो के बहुमत से रिश्वत लेकर वोट देने वाले सांसदों व विधायकों को विशेषाधिकारी के तहत सुरक्षित बताया था।
उल्लेखनीय है कि तब पीवी नरसिम्हा राव वर्सेस भारत गणराज्य मामले में शीर्ष अदालत की बैंच ने माना था कि संसद व विधानमंडल में रिश्वत लेकर वोट देने व भाषण देने के मामले में जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो सदन में किए गए किसी कार्य के लिये वे कठघरे में खड़े नहीं करे जा सकते। निश्चित रूप से इससे लोकतंत्रत की शुचिता व पारदर्शिता के लिए विसंगति उत्पन्न हुई थी। सोमवार को दिए फैसले के बाबत मुख्य न्यायाधीश का मानना था कि हम नरसिम्हा राव फैसले से सहमत नहीं है। साथ ही उस फैसले को निरस्त करते हैं जिसमें घूस लेने के मामले में जनप्रतिनिधि बचाव के लिये अपने विशेषाधिकार को कवच बनाएं। पहले का फैसला संविधान के कुछ अनुच्छेदों का अवहेलना भी करता है। निश्चित रूप से शीर्ष अदालत का यह फैसला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में साफ-सुथरी राजनीति की दिशा भी तय करेगा। दरअसल, यह मामला तब अदालत के संज्ञान में आया जब झारखंड मुक्ति मोर्चा की एक विधायक सीता सोरेन के रिश्वत लेकर वोट देने के मामले में सुनवाई हो रही थी। उन पर साल 2012 में राज्यसभा के चुनाव में रिश्वत लेकर एक निर्दलीय प्रत्याशी को वोट देने के आरोप लगे थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1998 के फैसले की दुहाई देकर राहत पाने की कोशिश की गई थी। दरअसल, विगत में भी एक बेंच ने इस फैसले को कम अंतर से सामने आने की वजह से इस मामले को बड़ी बेंच को देने की बात कही गई थी। यही वजह कि सोमवार को मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की सात सदस्यीय बैंच ने इस महत्वपूर्ण मामले में फैसला दिया। निश्चित रूप से उन्हें चुनने वाले मतदाताओं से छल करके जनप्रतिनिधि निरंकुश व्यवहार नहीं कर सकते। यह लोकतंत्र की शुचिता की भी अपरिहार्य शर्त है। इससे पहले पिछले माह सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक शुचिता व पारदर्शिता के लिये इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता को असंवैधानिक बताकर लोकतंत्र में धनबल के हस्तक्षेप पर अंकुश लगाने की सार्थक पहल की थी।

Advertisement

Advertisement
Advertisement