For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

जैव विविधता बचाने को प्राकृतिक खेती की राह

06:55 AM Jun 01, 2024 IST
जैव विविधता बचाने को प्राकृतिक खेती की राह
Advertisement

अखिलेश आर्येन्दु

Advertisement

जैव विविधता को नष्ट करने में ज़हरीले रसायनों का हाथ प्रमुख है। इसी तरह मिट्टी की गुणवत्ता और वातावरण की सात्विकता का नाश भी कीटनाशकों से हो रहा है। इसलिए भारत में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उन्हें कई सहूलियत भी दे रही हैं। लेकिन प्राकृतिक खेती के उत्पाद महंगे होने की वजह से इनकी बिक्री बहुत कम होती है। सरकारों को इस तरफ गौर करना चाहिए। इससे जहां इन रसायनों के इस्तेमाल पर रोक लगाने में मदद मिल सकती है, वहीं जानवरों और पक्षियों को बीमारियों से बचाकर जैव विविधता को बचाने में मदद मिल सकती है।
जैविक खेती के उत्पादों को छोड़ दिया जाये तो भी पीने और खाने की हर वस्तु में कीटनाशक मिलाए जाते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक देश का पर्यावरण कीटनाशकों के इस्तेमाल से ज़हरीला ही नहीं हो गया है बल्कि हमारा पीने वाला पानी और भोजन भी ज़हरीला हो गया है। इससे शारीरिक, मानसिक बीमारियां और अपंगता की समस्याएं भी लगातार बढ़ती रहती हैं। एम्स के फार्माकोलाॅजी विभाग के अध्ययन के अनुसार, घरों में मच्छरों और काकरोचों को मारने के लिए छिड़के जाने वाले कीटनाशकों का 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर असर बहुत गहरे तक पड़ता है।
बिडम्बना यह कि शिक्षित घरों में भी इसके प्रति कोई खास जागरूकता नहीं है। घरों में महंगे चमकीले सेब, केले, आम, बैंगन, भिंडी, लौकी जैसी इस्तेमाल होने वाली सब्जियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल, एक नहीं दो-तीन स्तरीय होने लगा है। खेत में जहां इनका उपयोग फसल की वृद्धि के लिए करते हैं, वहीं फसलों के रोगों से बचाव के लिए भी किया जाता है। वहीं चमकदार बनाने के लिए फोलिडज नामक रसायन में इन्हें डुबोया जाता है। इन तीन स्तरों पर कीटनाशकों और रसायनों के इस्तेमाल से जीवन, पर्यावरण, जैव विविधता और कृषि की जमीन पर कितना असर पड़ता होगा?
एक आंकड़े के मुताबिक, 2013-14 में देश के करीब 90 लाख हेक्टेयर जमीन में कीटनाशकों को छिड़काव के लिए इस्तेमाल किया, जो उपयोग बढ़कर 2017-18 में 94 लाख से अधिक हेक्टेयर तक में हो गया। इसके अलावा बागवानी और औषधीय खेती में भी कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है जिससे कोई भी फल और जड़ी-बूटी जहरीले रसायनों से सुरक्षित नहीं रह गयी है। ऐसा लगता है जैसे यह मान लिया गया हो कि बगैर जहरीले रसायनों के इस्तेमाल के फसल, विविध उत्पाद और भोजन को खराब होने से बचाया ही नहीं जा सकता है।
मसलन, कई राज्यों में टमाटर की अनेक किस्मों की फसलें उगाई जाती हैं। इनमें रश्मि और रूपाली प्रमुख हैं। हेल्योशिस आर्मिजरा नामक कीड़ा इन्हें बहुत नुकसान पहुंचाता है। इस कीड़े की रोकथाम के लिए इसमें रेपलीन, चैलेंजर, रोगर हाल्ट का छिड़काव कई चरणों में किया जाता है। नये वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से खाद्यान्नों, फलों में पाए जाने वाले महत्वपूर्ण तत्वों पर भी असर पड़ रहा है। इनकी गुणवत्ता में कमी आ रही है। नई-नई बीमारियों का जहां जन्म हो रहा है, वहीं पर इंसान असमय बूढ़ा हो रहा है।
भोजन के अलावा पानी को शुद्ध करने के नाम पर भी रसायनों का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। देश के कई शहरों में पीने के पानी में डीडीटी और बीएसजी की मात्रा पाई जाती है। महाराष्ट्र के बोतलबंद दूध के 70 नमूनों में डीडीटी और एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख तक पाई जाती है। दिल्ली के लोगों के शरीर में डीडीटी की मात्रा सबसे अधिक पाई जाती है। इसका कारण यमुना का दूषित पानी और रसायनों से दूषित आहार है।
कीटनाशकों के बढ़ते असर का परिणाम यह हुआ है कि जैव विविधता की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगने लगा है। शोध के मुताबिक जिन क्षेत्रों की फसलों में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग अधिक किया जाता है, वहां पिछले 50 सालों में कई वनस्पतियां और कीट-पतंगे हमेशा के लिए खत्म हो गए हैं। कई इलाकों का पर्यावरण कीटनाशकों के कारण इतना दूषित हो गया है कि श्वास, त्वचा, दिल और दिमाग संबंधी तमाम बीमारियां आमतौर पर होने लगी हैं। देश के जाने-माने वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् और चिकित्सकों के अनुसार कीटनाशकों से शोधित और छिड़काव किये टमाटर, बैंगन और सेब के खाने से किडनी, छाती, स्नायुतंत्र, पाचन अंग और मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ने लगा है।
सेहत के मामले में बच्चों के शारीरिक, मानसिक विकास में उनको दिया जा रहा कीटाणुयुक्त पानी और भोजन बहुत खतरनाक पाया गया है। चिंता की बात यह है कि विज्ञापनों के मकड़जाल में किसान और उद्योग जगत ही नहीं उन परिवारों के लोग भी हैं जो स्वयं को तो वैज्ञानिक सोच का कहते हैं, लेकिन जब पानी और आहार की शुद्धता की बात आती है तो वह भी समझौता कर लेते हैं।
स्थिति यह हो गई है कि परिवार के परिवार कीटनाशकों के असर के कारण कई गम्भीर बीमारियों के चपेट में हैं। लोगों का तर्क यह है कि यदि सभी खाद्यों और पेयों में कीटनाशक इस्तेमाल किये जा रहे हैं तो वे कहां से जैविक खाद्य लाएं। गौरतलब यह भी कि अधिक महंगे जैविक खाद्य को यदि इस्तेमाल करने की कोशिश की जाए तो गरीब आदमी तो इसके उपयोग करने की बात सोच भी नहीं सकता।

Advertisement
Advertisement
Advertisement