पाक सत्ता के गलियारों में तंग नज़रिया
विवेक शुक्ला
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पिछले सोमवार को अपनी कैबिनेट में पांच नए मंत्री शामिल किए। नए मंत्रियों ने पद और गोपनीयता की शपथ पंजाबी में ली। उधर, सरहद के उस पार के पंजाब में पिछली 24 फरवरी को मरियम नवाज ने पंजाब के मुख्यमंत्री की शपथ उर्दू में ली। दरअसल, पाकिस्तान के हिस्से वाला पंजाब धरती की जुबान पंजाबी से लगातार दूर हो रहा है।
क्या आप यकीन करेंगे कि पाकिस्तान की पंजाब असेंबली में बहस उर्दू या इंग्लिश में ही हो सकती है? पंजाबी में बहस करना या सवाल करना निषेध है। मतलब मातृभाषा को असेंबली में बोलने की मनाही है। आप अपनी मातृभाषा में शपथ भी नहीं ले सकते। ये मुमकिन है अपने घर में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री भले ही पंजाबी में बोलते हों या पंजाबी लोकगीत सुनना भी पसंद करते हों लेकिन, वे पंजाब असेंबली में उर्दू से इतर किसी भाषा में नहीं बोलते।
पंजाबी के हक में संघर्षरत लाहौर की पंजाबी प्रचार सभा नाम की संस्था के अध्यक्ष प्रो. तारिक जटाला इस सारी स्थिति के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हैं जो देश के बंटवारे के समय उत्तर प्रदेश या दिल्ली से पाकिस्तान शिफ्ट कर गए थे। वे कहते हैं कि पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की सलाह पर मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू घोषित करवा दी। उसके चलते ईस्ट पाकिस्तान आगे चलकर बांग्लादेश बना और पंजाब में पंजाबी अछूत होने लगी। लियाकत अली खान खासमखास थे जिन्ना के। वे करनाल के करीब कुंजपुरा के नवाब खानदान से थे। उनकी मुजफ्फरनगर में भी अकूत संपत्ति थी। उन्होंने जिन्ना को समझाया कि पाकिस्तान के लिए उर्दू को राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित करना सबसे उपयुक्त रहेगा। उन्होंने शायद यह सलाह इसलिए दी होगी क्योंकि पाकिस्तान के लिए चले आंदोलन में यूपी वाले सबसे आगे थे। यानी पाकिस्तान के छोटे से उर्दू बोलने वाले समूह की जुबान को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया गया। हालांकि, उर्दू पाकिस्तान के किसी भी प्रांत की भाषा नहीं थी। उर्दू को पाकिस्तान की मातृभाषा बनाए जाने के कारण लियाकत अली खान देश के स्थाय़ी रूप से खलनायक बन गए। पंजाब में तो लोग उनसे नफरत करते हैं।
पंजाबी के अपमान और अनदेखी से नाराज सैकड़ों पंजाबी भाषी पाकिस्तानी धीरे-धीरे सड़कों पर उतर रहे हैं। जाहिर है, ये अपनी मां बोली के साथ हो रहे अन्याय से दुखी हैं। पर अपने को सच्चा पाकिस्तानी बताने की फिराक में अधिकतर पंजाबी अपनी मातृभाषा को छोड़ रहे हैं। नई पीढ़ी तो पंजाबी से लगभग किनारा कर चुकी है।
पंजाबी के कवि रेहान चौधरी कहते हैं कि हम पंजाबी के हक में इसलिए लड़ रहे हैं, क्योंकि हमारी पंजाबी के रूप में पहचान हमारे पाकिस्तानी और मुस्लिम पहचान से कहीं अधिक पुरानी है। इसलिए हमें पंजाबी के हक में लड़ना है। हालांकि, उन्हें इस बात का अफसोस भी है कि पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही पंजाबी को उसका हक नहीं मिला। तब पंजाब की सरकारी भाषा फारसी थी। अंग्रेजों के दौर में फारसी का स्थान उर्दू ने लिया।
आजकल जेल में बंद इमरान खान की मातृभाषा भी पंजाबी है। उनकी मां जालंधर से थी। आप लाख कोशिश कर लें पर वे पंजाबी में नहीं बोलेंगे। उन्होंने इस लेखक से 2004 में एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि वे पंजाबी में नहीं बोलते। उन्होंने इस बात को सही कहा था कि उनके देश के हिस्से वाले पंजाब में सारे सरकारी काम उर्दू या अंग्रेजी में ही होते हैं।
भारत के पंजाब में तो पंजाबी को उसका वाजिब हक मिल रहा है। हमारे पंजाब में सरकारी दफ्तरों से लेकर स्कूलों और कॉलेजों में पंजाबी का हर स्तर पर प्रयोग होता है। पर पाकिस्तान के स्कूलों-कालेजों में इसकी पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं है।
पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथी सोच को खाद-पानी देने वाले इस्लाम को उर्दू के साथ जोड़कर बताने लगे। क्या किसी धर्म का किसी भाषा से संबंध हो सकता है? कम से कम इस्लाम और उर्दू का तो कोई सीधा संबंध नहीं है। इस्लाम के धर्मावलंबी सारे संसार में अलग-अलग भाषाएं बोलते-समझते हैं। ईस्ट पाकिस्तान इसलिए ही बांग्लादेश बना था क्योंकि वहां पर उर्दू को थोपा गया था। पंजाब प्रांत के बहुत से कठमुल्ला अवाम को यह समझाने में सफल रहे कि पंजाबी बोलने से उनका इस्लाम खतरे में आ जाएगा। खतरे में इसलिए आ जाएगा क्योंकि पंजाबी को हिन्दू, सिख, ईसाई भी बोलते हैं।
यकीन मानिए कि पंजाबी बनाम उर्दू का अगर कोई सौहार्दपूर्ण तरीके से हल नहीं खोजा गया तो पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा भाषाई विवाद की आग में झुलसेगा।