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त्रिभाषा फार्मूले में विरोध हिंदी का ही क्यों

04:00 AM Apr 24, 2025 IST
त्रिभाषा फार्मूले में विरोध हिंदी का ही क्यों
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भाषा बच्चों पर बोझ नहीं होतीं, बड़ों की तुलना में वह कहीं अधिक आसानी से भाषाएं सीख लेते हैं। फिर भी यदि किसी को तीन भाषाओं की अनिवार्यता बोझिल लग रही है तो विरोध एक विदेशी भाषा, अंग्रेजी, का होना चाहिए, अपने ही देश की सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा, हिंदी का नहीं।

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विश्वनाथ सचदेव

हिंदी हमारे देश की राजभाषा का नाम है, पर इसे एक और अर्थ में भी समझा जा सकता है- वह अर्थ है हिंदी यानी हिंदोस्तां का। अल्लामा इकबाल ने लगभग सवा सौ साल पहले लिखा था, ‘हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा’ आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही हमारे स्वतंत्रता-सेनानियों ने हिंदी को पूरे देश की भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी। फिर, जब संविधान के निर्माण का कार्य चल रहा था तो इस आधार पर हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारे जाने की बात कही गई थी कि देश में हिंदी को समझने वालों की संख्या अन्य सभी भारतीय भाषाओं से अधिक है। यहां यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि हमारे संविधान निर्माताओं में हिंदी की वकालत करने वाले मुख्यतः अहिंदी भाषी नेता ही थे। हिंदी को राजभाषा घोषित किये जाने की मांग करने वालों में सबसे पहला नाम दक्षिण भारतीय विद्वान गोपालस्वामी अय्यंगर का है। उन्होंने ही गुजराती भाषी के.एम. मुंशी के साथ मिलकर इस आशय का प्रस्ताव संविधान सभा में रखा था, जिसे भरपूर समर्थन मिला।
जब हम आज़ाद हो गये तो यह बात एक स्वीकृत सत्य की तरह मान ली गयी थी कि अब देश का काम देश की भाषा–हिंदी में होगा। पर इसी बीच दक्षिण और उत्तर के नाम पर हिंदी को लेकर विवादास्पद बातें भी होने लगीं। दक्षिण में, विशेष कर तमिलनाडु में, यह भावना उठने लगी कि हिंदी के माध्यम से उत्तर भारत दक्षिण भारत पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेगा। बात भले ही सांस्कृतिक आधिपत्य के रूप में की जा रही थी, पर यह भी सत्य है कि कथित ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ की आशंका के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक वर्चस्व की आशंका भी थी। हालांकि ऐसा कुछ था नहीं। हिंदी की स्वीकार्यता की बात का आधार यही तथ्य था कि देश में हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या सर्वाधिक थी। हिंदी को राजभाषा बनाने का कदापि यह अर्थ नहीं था कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से कहीं बेहतर या ऊंची भाषा है। आज भी यदि ऐसी कोई भावना किसी में है, तो वह ग़लत है। हिंदी देश की, विशेष कर दक्षिण भारत की, भाषाओं से तुलना में कहीं कम समृद्ध है। हिंदी को तो मुख्यत: इसलिए स्वीकारा गया कि इससे देश भर में संवाद कुछ आसान हो जायेगा। हिंदी वालों को, और गैर-हिंदी भाषियों को यह बात समझनी ही होगी कि हिंदी देश की बाकी भाषाओं की बड़ी बहन नहीं, एक सखी है। दोस्ती में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। सब बराबर होते हैं।
इसी भावना के साथ यह माना गया कि देश के लोगों को तीन भाषा तो सीखनी ही चाहिए- एक अपनी मातृभाषा, दूसरी अंग्रेजी, और तीसरी देश की कोई अन्य भाषा। हमारी नयी शिक्षा-नीति में भी यही सोचकर तीन भाषाओं की बात कही गयी। आशा और अपेक्षा यह थी कि दक्षिण वाले हिंदी सीख लेंगे, और उत्तर वाले कोई भारतीय भाषा। पर हिंदी वालों से यहां जानबूझकर या अनायास ही एक चूक हो गयी-उन्होंने तमिल या मलयालम या बांग्ला या कन्नड़ आदि भारतीय भाषाओं में से किसी एक को सीखने के बजाय संस्कृत को सीखना ज़्यादा पसंद कर लिया। संस्कृत पढ़ने में कुछ ग़लत नहीं है, पर यह उस अपेक्षा के अनुरूप नहीं था जिसे आधार बनाकर त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया था। इसी अपेक्षा की पूर्ति के लिए नयी शिक्षा–नीति में त्रिभाषा फार्मूला स्वीकारा गया। पर, दुर्भाग्य से अब भी दक्षिण, पूर्व या पश्चिम भारत वालों में से कुछ लोगों को इसमें ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ की गंध आ रही है। इस सोच का नवीनतम उदाहरण महाराष्ट्र में दिख रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने नयी शिक्षा- नीति में किये गये प्रावधान को स्वीकारते हुए स्कूली स्तर पर मातृभाषा, अंग्रेजी और हिंदी को अनिवार्य बनाया है। यह अनिवार्यता कुछ तत्वों को खल रही थी। यह तत्व अब भी इस गलतफ़हमी के शिकार हैं कि इस शिक्षा-नीति से उनकी मातृभाषा को नुकसान पहुंचाने का कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है! हैरानी की बात तो यह है कि हिंदी सीखने-सिखाने का विरोध करने वाले यह तत्व अंग्रेजी को त्रिभाषा फार्मूले का हिस्सा बनने पर चुप हैं। बिना किसी ठोस आधार के उन्होंने एक विदेशी भाषा, अंग्रेजी, को तो सहज स्वीकार लिया है, पर अपने ही देश की एक भाषा, हिंदी, को स्वीकारने को वे ‘थोपा जाना’ मान रहे हैं। हकीकत यह है कि कल भी हिंदी का विरोध करने के पीछे राजनीतिक स्वार्थ थे, और आज भी राजनीतिक स्वार्थ ही महाराष्ट्र समेत देश के कुछ हिस्सों में हिंदी का विरोध करवा रहे हैं।
अंग्रेजी विश्व की एक प्रमुख भाषा है, इसमें कोई संदेह नहीं। अंतर्राष्ट्रीय संपर्कों की दृष्टि से सीखना-समझना कहीं ग़लत नहीं है। पर इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, या नहीं किया जाना चाहिए, कि अंग्रेजी सारी दुनिया की नहीं, दुनिया के कुछ ही देश की भाषा है। जापान, जर्मनी, फ्रांस, चीन, रूस जैसे न जाने कितने ही देश हैं जिन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को अनुचित माना है। अपनी भाषा में काम-काज करने की उनकी जिद से उन्हें कहीं कोई नुकसान नहीं पहुंचा। उल्टे उन्होंने इस ज़िद को अपनी अस्मिता के संदर्भ में समझा है। होना यह चाहिए था कि महाराष्ट्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर सवाल किया जाता। विश्व-व्यापार के लिए अथवा अंतर्राष्ट्रीय संपर्कों की दृष्टि से यदि अंग्रेजी सीखने की ज़रूरत है तो उनसे जुड़े लोग यह भाषा सीख लेंगे–हर भारतीय को इसे सीखने की विवशता क्यों? इसलिए, विरोध यदि ज़रूरी है तो वह अंग्रेजी की अनिवार्यता का होना चाहिए। हिंदी का नहीं।
महाराष्ट्र में हिंदी सीखने-सिखाने के इस विरोध के पीछे बच्चों पर भाषाई-बोझ का तर्क भी दिया जा रहा है। मुख्य बात तो यह है कि भाषा बच्चों पर बोझ नहीं होतीं, बड़ों की तुलना में वह कहीं अधिक आसानी से भाषाएं सीख लेते हैं। फिर भी यदि किसी को तीन भाषाओं की अनिवार्यता बोझिल लग रही है तो विरोध एक विदेशी भाषा, अंग्रेजी, का होना चाहिए, अपने ही देश की सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा, हिंदी, का नहीं।
भाषा की राजनीति से कुछ राजनीतिक स्वार्थ भले ही सध जाते हों, पर यह राजनीति हमें टुकड़ों में बांटने वाली है। हमें तो इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे पास इतनी सारी समृद्ध भाषाएं हैं। ये सारी भाषाएं हमारी पहचान हैं, हमारा गौरव हैं। हिंदी की अनिवार्यता से मराठी को नुकसान पहुंचाने के सोच वालों को यह समझना चाहिए कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी से हमारी भाषाओं को खतरा है। आज देश के सब हिस्सों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़-सी आ गयी है। पिछले कुछ सालों में मुंबई में मराठी और हिंदी माध्यम के सौ से अधिक स्कूल बंद हो चुके हैं। चिंता इस बात की होनी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है, और कैसे इस प्रवृत्ति को रोका जाये। हमारी भाषाएं हमारी पहचान हैं। चिंता इस पहचान को बचाये रखने की होनी चाहिए।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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