मनुष्य रूप में नारायण ही हैं गुरु
डॉ. मधुसूदन शर्मा
व्यापक रूप से यदि देखें, तो गुरु शब्द का अर्थ है ‘वह, जिससे हम कुछ भी सीखते हैं।’ शिशु जब संसार में आता है तो सर्वप्रथम उसे अपनी माता का सान्निध्य प्राप्त होता है। इसीलिए किसी ने कहा है, सबसे बड़ी गुरु ‘मां’ है। जब बालक स्कूल जाता है तो उसे वह गुरु मिलते हैं, जो उसे जीवन विकास के लिए शिक्षा देते हैं और कर्म क्षेत्र में जीवन संग्राम के लिए तैयार करते हैं। इसी प्रकार प्रकृति, जीव-जन्तु तथा दूसरी वस्तुएं, हमें कुछ न कुछ सिखाती हैं, इसलिए वे भी गुरु पद के अधिकारी हुए।
सद्गुरु
विषय ज्ञान देने वाले गुरुओं के अतिरिक्त आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले गुरु भी होते हैं। इनमें भी कुछ सामान्य धार्मिक मनुष्य होते हैं। जबकि कुछ गुरु ईश्वरदर्शी, आत्मज्ञानी होते हैं। ईश्वरीय शक्तियों से भरपूर ऐसे गुरुओं को ही आध्यात्मिक जगत में सद्गुरु कहते हैं। गुरु को परिभाषित करते हुए गीता में एक श्लोक है :-
‘गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥’
यहां ‘गु’ का अर्थ है अंधकार, और ‘रु’ का अर्थ अज्ञान को नष्ट करने वाला जाना जाता है। इस प्रकार गुरु वह होता है जो अपने शिष्य को अंधकार से तेज यानी प्रकाश की ओर आगे बढ़ाता है। अज्ञान से ज्ञान की ओर उन्मुख करने वाला होता है।
गुरु की खोज
सात जुलाई, 1970 को लॉस एंजेलिस अमेरिका में योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया यानी एसआरएफ की स्वर्ण जयंती समारोह में संस्था की तत्कालीन उपाध्यक्षा श्री श्री मृणालिनी माता के प्रवचन का यह अंश प्रासंगिक है ‘यह ईश्वर रचित सृष्टि सुव्यवस्थित ब्रह्मांडीय नियम के अनुसार चलती है, औऱ गुरु-शिष्य संबंध का उद्गम उसी नियम में होता है। यह ईश्वरीय विधान है कि जो भी ईश्वर की खोज करता है, उसे किसी सद्गुरु द्वारा ही ईश्वर से मिलाया जाता है। जब साधक सचमुच भगवान को जानने की इच्छा करता है, तब उसका गुरु आ जाता है।’
सच्चे गुरु के लक्षणों का वर्णन मुंडकोपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद में इस प्रकार मिलता है—गुरु ब्रह्मनिष्ठ हो यानी उसका ईश्वर से साक्षात्कार हुआ हो, उसने भगवान को देखा हो। शास्त्रनिष्ठ हो, आत्मसंयमी हो, जितेंद्रिय हो, धैर्यवान हो। इनमें भी गुरु का ब्रह्मनिष्ठ होना अनिवार्य शर्त है। ब्रह्मनिष्ठ गुरु के संबंध में परमहंस योगानंद जी कहते हैं ‘जो गुरु ईश्वर प्राप्त नहीं है ईश्वर का साम्राज्य नहीं दिखा सकता, चाहे उसके कितने भी अनुयायी हों।’
शिष्य की पात्रता
शिष्य को यह समझना चाहिए कि लौकिक ज्ञान प्राप्त करके आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए ईश्वर साक्षात्कार के लिए शिक्षा गुरु कोई सहायता नहीं कर सकता, इसके लिए तो उस गुरु की शरण में जाना होगा जो ब्रह्म तत्व को समझ चुका है या यूं कहें कि जो ब्रह्मस्वरूप हो चुका है। कामना-रहित, विशुद्ध और सहज अन्तःकरण वाले साधक जो आत्मज्ञान के लिए तत्पर हैं, सद्गुरु सहज ही मिल जाते हैं। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञान-पिपासा और अध्यवसाय हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन, मन और वचन की शुद्धता नितान्त आवश्यक है। ऐसे ही शिष्यों को सद्गुरु मिलते हैं।
गुरु साधारण नहीं होता
शास्त्र कहते हैं, गुरु अज्ञानध्वंसकारी होता है। इसलिए गुरु की शरण में आने से ही वास्तविक जीवन का शुभारंभ होता है। परमहंस योगानंद जी ने एक प्रवचन के दौरान गुरु के महत्व पर कहा, ‘गुरु एक जागृत ईश्वर है, जो शिष्य के भीतर सुप्त ईश्वर को जगा रहा है।’
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है :-
‘बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर॥’
अर्थात् गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूं। जैसे सूर्य के निकलने पर अंधेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अंधकार का नाश हो जाता है।
हमारे धर्मग्रंथ गुरु की महिमा का गुणगान करते नहीं अघाते। गुरु को भगवान से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। जीवन के समग्र विकास के लिए गुरु का आश्रय नितांत आवश्यक है। भारतीय जनमानस में आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा मनाने का विधान है। वैसे तो शिष्यगण के लिए गुरु हर दिन पूजित हैं, परंतु इस दिन शिष्यगण अपने गुरुदेव की पूजा पूरे शास्त्रोक्त विधि से करते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं। धार्मिक मान्यता यह भी है कि आषाढ़ पूर्णिमा को महर्षि वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। उनके सम्मान में ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
पुराणों के अनुसार, भगवान शिव सबसे पहले गुरु माने जाते हैं। उन्होंने ही सबसे पहले धरती पर सभ्यता और धर्म का प्रचार-प्रसार किया था इसलिए उन्हें आदिदेव और आदिगुरु कहा जाता है। अपने गुरुदेव के नाम का कीर्तन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही कीर्तन है। अपने गुरुदेव के नाम का चिंतन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही चिंतन है। गुरु पूर्णिमा गुरु और शिष्य के बीच आध्यात्मिक बंधन का उत्सव है। इसका धार्मिक से अधिक आध्यात्मिक महत्व है।