मेरे पिता
गिरिराज शरण अग्रवाल
एक दिन
मैंने पूछा अपने पिता से
आप इतना नाराज़ क्यों होते हैं
हमारी भूलों को
नज़रअंदाज़ नहीं करते हैं!
उस दिन वह नाराज़ नहीं थे
और मेरे प्रश्न का
उत्तर देने की स्थिति में थे।
बोले- मैं कहां होता हूं नाराज़
कब करता हूं क्रोध
कब करता हूं ताड़ना, कब पीटता हूं
कब फटकारता हूं!
क्या तुम्हें ऐसा लगता है!
मैंने उनकी ओर देखा
और बिना भय के
उनसे पूछा—
याद है आपको
मैं मौसी की शादी में गया था,
आप भी लगे थे इंतज़ाम में।
तभी अचानक क्या हुआ
एक गाय आई
और उसने मेरी छोटी अंगुली को
अपने खुर से रगड़ दिया।
मैं चीखा, चिल्लाया
डॉक्टर ने पैर की पट्टी की
तब तक आप आए
मेरी पीड़ा को समझे बिना
गाल पर अपने हाथ के
चिन्ह छाप दिए।
क्या यह आपका क्रोध नहीं था,
कौन-सा प्यार था वह
जो स्वीकार था केवल आपको!
पिता ने मेरी ओर देखा
और हल्के से मुस्कुराए।
बोले
वह क्रोध तुम्हारी सुरक्षा
के प्रति था वह क्रोध
तुम्हारे प्रति प्रेम का अतिरेक था
तुम सुरक्षित थे
इस बात की आश्वस्ति था।
तुमने मेरे क्रोध को तो देखा
मेरी आंखों में छलकते
आंसुओं की तरफ ध्यान नहीं दिया।
तुम्हारे हित में मेरी उत्तेजना
किस रूप में बरस रही थी
इसका आभास केवल मुझे था,
तुम बालक थे
तुमने मेरा क्रोध-भर देखा था।