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जीवन का संगीत

07:57 AM Mar 17, 2024 IST
जीवन का संगीत
चित्रांकन : संदीप जोशी
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सुशील कुमार फुल्ल

वह हड़बड़ाया-सा आया, हाथ में डंडा लिए और बोला, ‘वे दो लोग थे एकदम स्याह कपड़े पहने। उनकी नजरें कुछ ढूंढ़ रही थीं। शायद उसे ही लेने आए हों, मुझे लगा। मैंने हाथ में डंडा लिया और गत्तके की तरह ताबड़तोड़ चलाना शुरू कर दिया। और यमदूत भाग गए। बेटा, डर कर जीना भी कोई जीना होता है। मैंने उन्हें उसके कमरे तक जाने ही नहीं दिया। वह तो अशक्त है, कहां सामना कर पाती उनका।’ बड़बड़ाता हुआ सोहनलाल अपने कमरे में चला गया आश्वस्त होकर कि खतरा टल गया था।
साधुराम अपने पिता की चिन्ताओं को समझता था। पत्नी बेबस बिस्तर पर पड़ी हो, दर्द से कराह रही हो, जीवन और मृत्यु के बीच झूलती हुई तो किसी का भी विचलित होना स्वाभाविक है। स्याहपोश यमदूतों की कल्पना पर वह मुस्करा दिया। भारत के मानस में यह बात रची-बसी है कि यमदूत आते हैं और प्राणी को ले जाते हैं।
प्रकृति अपनी चाल से चलती रहती है और इंसान अपनी इच्छा के अनुकूल स्थितियों की व्याख्या करता रहता है।
बिस्तर पर लेटी सावित्री सोच रही थी, जीवन की धूप-छांव भी कितनी विलक्षण होती है। सपनों की कभी चमचमाती परत और कभी धुंधली-सी झिल्ली परिवेश को गंधाती अपना ही कोकून बुनती रहती है। इंसान अपने आप को तीसमार खां समझता है परन्तु यह भी सच है कि क्षणभर में ही उसकी हेकड़ी निकल जाती है। माटी का पुतला। अनायास ही पंचतत्व में विलीन हो जाता है। सोचते ही उसे लगा कि उसके प्राण पंखेरू भी तो कभी भी उड़ान भर सकते हैं।
वह कांप गई। पता नहीं उस में कहां से इतना साहस आ गया था कि उसने स्पाइनलकार्ड की सर्जरी के लिए हामी भर दी थी। और वह उस स्थिति को सफलतापूर्वक पार कर गई थी परन्तु अब डर लग रहा था कि कहीं वह बिस्तर से ही न लगी रह जाए। विवाह के बाद उसने पति के साथ बहुत लम्बी यात्रा की योजनाएं बनाई थीं और उनका वैवाहिक जीवन सुखमय ढंग से खरामा-खरामा चला भी जा रहा था। जीवन के आठ दशक पार कर लेना भी तो एक उपलब्धि ही थी।
सामने धवलधार पर्वत शृंखला है और न्यूगल का लुभावना और कभी डरावना गहराता पाट सदा ही आकर्षण का केन्द्र रहा है। कितने लोग इसमें समा चुके हैं। यहां असंख्य पर्यटक आते हैं, कभी इसके किनारे सेल्फी लेते-लेते फिसल कर पानी में बह जाते हैं और घर वाले हाथ मलते रह जाते हैं। न्यूगल खड्ड के बहाव में जो गया सो चला ही गया। बचने की कोई संभावना ही नहीं रहती। खड्ड इतनी भरी पूरी आती है। इस बार तो प्रकृति ने रौद्र रूप ही धारण कर लिया है। दरियाओं के किनारे बने होटल जल प्रलय में बह गए। बड़ी-बड़ी चौड़ी सड़कें बनेंगी तो पहाड़ तो दरकेंगे ही। और तो और दिल्ली में भी पानी ही पानी हो गया। और एनडीआरएफ के बोट चलने लगे... और छेड़ो यमुना मैया को।
मौत के लिए कोई न कोई बहाना बनता है। बिट्टू भी ऐसे ही चला गया था। ब्रेन में ब्लड क्लॉटिंग। बस समय पर बताया ही नहीं अन्यथा उपचार हो जाता और जब उसे आपरेशन के लिए थियेटर में ले गए तो सर्जरी के दौरान ही बिजली चली गई। हमारा दुर्भाग्य वह चल बसा। और मैं पचासी साल की उम्र में भी जिन्दा हूं। सत्ताईस साल की उम्र भी क्या उम्र होती है। मेरा कितना लम्बा आपरेशन हुआ परन्तु बिजली नहीं गई। काश! मैं ही मर जाती। कहते हैं आजकल बिजली आदि का आल्टरनेटिव प्रबन्ध भी अस्पतालों में रहता है। तब नहीं था।
जब कभी किसी एक अनहोनी की याद आती है तो दूसरी दुर्घटनाएं भी याद आने लगती हैं। उसकी आंखों में विक्की की तस्वीर घूम गई। वह कालेज में पढ़ता था। अचानक एक दिन घर आते ही बोला- मेरी पीठ में दर्द हो रहा है। घर में कोई दर्द निवारक गोली पड़ी थी, वह उसे दे दी गई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। पिता ने सोचा उसे एम्स में ही दिखा देते हैं। वे दोपहर तीन बजे अस्पताल पहुंच गए लेकिन रोगी का नम्बर आते-आते रात के दस बज गए और पानी-पानी करता विक्की बेहोश हो गया। एक बार बेहोश हो गया तो फिर उसे होश ही नहीं आया। डाक्टरों ने छानबीन कर बताया कि उसे दिमागी बुखार हो गया है। तीन महीने आईसीयू में पड़ा रहा सुप्तावस्था में। और फिर डाक्टरों ने वेंटिलेटर हटा दिया। दीपक बुझ चुका था। संतान जाती है तो मां-बाप के चारों तरफ अंधेरा हो जाता है। आज जापानी एनसिफलाइट्स का इलाज है, तब नहीं था। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है परन्तु जिनके अपने समय से पूर्व चले जाते हैं, उनके जख्म तो कभी नहीं भरते। सावित्री ने आह भरी, उसे लगा दिमागी बुखार ने उसे भी दबोच लिया था।
घर में ही अस्पताल बना दिए गए कमरे के बाहर चार-पांच लोगों को एक साथ खड़े देख कर वह बिजली की गति से बाहर आया और बोला, ‘ससुरे मुझे ही कुछ नहीं बताते। मैंने सारी उम्र उसके साथ बिताई है और अपने बच्चों का पालन-पोषण किया है। छोटी-सी सरकारी नौकरी में भी मैंने कभी भी इन्हें तंग नहीं होने दिया। अब सब खूब कमाते हैं। भला हो सरकार का कि हवाई अड्डे के निर्माण में जो पुरखों की जमीन आ गई उससे हमारे वारे न्यारे हो गए। तीनों बेटों ने बड़े-बड़े प्लाट खरीद कर आलीशान भवन बना लिए। हमने तो ऐसे ही टपरीवास में ही जीवन निकाल दिया।’ क्षणभर रुक कर उन्होंने कहा, ‘मुझे सुनाई नहीं देता तो क्या हुआ, दिखाई तो देता है। जरूर तुम कुछ छिपा रहे हो।’ वह बेचैन होकर इधर-उधर घूमने लगे।
साधुराम ने कहा, ‘आप आराम से बैठ जाएं। कोई बात होगी तो आप को बता देंगे। रिकवरी थोड़ी धीमी है पर वैसे सब कुछ नार्मल है।
‘तुम तो कह रहे थे वह पूरी हो गई’।
‘मैंने कब कहा? आप को सपने आते हैं।’ साधुराम कुढ़ कर बोला।
सोहनलाल को कुछ सुनाई नहीं दिया। सुनने की क्षमता तो पहले ही खत्म हो चुकी थी। कान में कई बार श्रवण हेतु मशीन लगवाई परन्तु वे मशीनें जल्दी ही खराब हो जातीं और सोहनलाल व्यापारियों को गालियां देने लगते। साले घटिया माल मंगवाते हैं। इन्हें तो पैसा ऐंठना आता है। चोर-उचक्के कहीं के।
साधुराम ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। उपेक्षित-सा महसूस करते हुए वह बाहर आंगन में जाकर घूमने लगे। ऐसे अवसर पर वह बीड़ी पर बीड़ी पीते जाते। पिछली रात उन्होंने जाग कर बिताई। दरअसल, उनके मन में चिन्ता घर कर गई कि पता नहीं क्या होने वाला है। आपरेशन तो ठीक से निकल गया परन्तु बाद में भी कोई कम्पलीकेशन हो सकती है, ऐसा अन्देशा डाक्टर ने जताया था। और फिर घर के लोग बार-बार उठ कर सावित्री को देखते थे, इससे भी उन्हें अनहोनी की आशंका होती थी। परमात्मा भली करे, पता नहीं कब क्या हो जाए? वह बार-बार अपने आप से बोल रहे थे।
निरीक्षण परीक्षण करने के बाद डाक्टरों ने आपस में परामर्श करने के बाद कहा था, ‘सर्जरी तो कर दें परन्तु खतरा बहुत ज्यादा है। हो सकता है रोगी सर्जरी के दौरान ही चल बसे। पहले ही इतने ज्यादा स्टेरॉयड खाए जा चुके हैं कि हड्डियां भुरभुराने लगी हैं। मेरुदण्ड बहुत ही संवेदनशील भाग है शरीर का।’
‘सांस की बहुत पुरानी बीमारी है। कितने वर्षों से आक्सीजन पर चल रही हैं। दिन में तीन-तीन बार नेबेलाइज़र भी लेती हैं। कौन जाने सर्जरी के वक्त सांस कितना शान्त रहता है।’ एक डाक्टर ने अपना मत व्यक्त किया।
‘चर्मरोग की भी बीमारी है, सिरौसिस। मैं तो सलाह नहीं दूंगा आपरेशन की। बाकी पेशेंट से पूछ लो। घर वाले तो खुद ना-नुकर कर रहे हैं।’
सावित्री के कानों में यह आवाज पड़ी, तो वह भड़क उठी। बोली, मैं आपरेशन करवाए बिना घर नहीं जाऊंगी। बिस्तर पर रिड़कने से आर या पार हो जाना चाहूंगी। मैं नहीं डरती मरने से। एक न एक दिन तो मरना ही है।’ वह विश्वास के साथ गर्ज उठी।
सभी डाक्टर हैरान-परेशान परन्तु इस बात से खुश भी थे कि रोगी में आत्मविश्वास भरपूर मात्रा में है जो किसी भी आपरेशन के लिए जरूरी होता है। डाक्टरों ने फिर आपस में विचार-विमर्श किया और साधुराम, सोहनलाल तथा घर के दूसरे लोगों से बातचीत की। अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करते हुए साधुराम का दिल धड़क रहा था परन्तु उसके पिता ने कहा, ‘सर्जरी भलाई के लिए ही होती है, उस परमपिता में विश्वास रखो और कर दो हस्ताक्षर।’ उनके चेहरे पर अलग ही विश्वास झलक रहा था।
कोई बड़ा आपरेशन हो तो डर तो लगता ही है। साधुराम भी मन ही मन भयभीत था कि कहीं कोई अनहोनी ही न हो जाए। सोच-सोच कर उसने अपने कजन, जो कैंसर विशेषज्ञ था, डॉ. कुलदीपक को फोन किया और कहा कि उसके माता जी उससे बात करना चाहते है। दोनों में बात हुई और सावित्री ने कहा, ‘बेहतर होगा यदि तुम आपरेशन वाले दिन से एक दिन पहले आ जाओ।’ और बात बन गई थी, एक मोरल स्पोर्ट हो गई थी।
आपरेशन कब हो गया, पता ही नहीं चला। डाक्टर भी प्रसन्न थे। और मरीज को भी जल्दी ही होश आ गया था। आशा एवं उत्साह का संचार। कुछ दिनों बाद टांके खुलने थे। अचानक दर्द फिर बढ़ गया। डाक्टरों ने देखा सब कुछ नार्मल था लेकिन बिस्तर से बंधे होने के कारण मरीज भारी-भारी महसूस कर रहा था। सावित्री ने रिंकू से कहा, ‘सिस्टर मेरे बैग में कब्ज की टैबलेट है, वह मुझे चुपचाप दे दो।’
सिस्टर ने संशय से उसकी ओर देखा लेकिन कहा कुछ नहीं।
सावित्री को लगा उसका शरीर बेजान होता जा रहा था, वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। सभी घर वाले चिन्ता की मुद्रा में उस के इर्दगिर्द एकत्रित हो गए थे।
बड़ी बहू सरोज ने कहा, ‘बिल्कुल निढाल लगती हैं। जरा हाथ पांव दबा देते हैं।’
मझली बहू मधु कीर्तपुर ने सुझाया, ‘इन्हें दलिया-वलिया खिलाते हैं। कुछ खाएंगी नहीं तो शरीर में जान प्राण कहां से आएंगे।
सब से छोटी पंकज बहू ने उनकी हां में हां मिलाई और कहा, ‘इन्हें अपनी मर्जी से गोलियां नहीं लेनी चाहिए।
तभी सोहनलाल दौड़ा आया और कुछ सोचकर कहने लगा, तुम तो कह रहे थे वह पूरी हो गई। मुझ से क्यों झूठ बोलते हो। लगता है अन्दर किसी और को सुला दिया है। वह तो ऐसे नहीं सोती थी। यह भी क्या बचपना है कि आत्मा का जब मन होता है कुलांचे भरने लगती है। आप लोगों ने ख्याल रखना, मैं अभी डंडा लेकर आया। देखता हूं कौन माई का लाल उसे लेकर जाता है। उधर खिड़की के बाहर कभी धुंध का गुब्बार और कभी धूप की चमक अजीब-सा वातावरण प्रस्तुत कर रही थी।
भयभीत रिंकू ने सावित्री की पुतलियां उठा कर देखीं और अस्फुट स्वर में बोली, ‘सब ठीक तो है, बाकी राम जाने।
सोहनलाल डंडा लेकर आ खड़ा हुआ था चुपचाप। किसी गुत्थी को सुलझा लेने की मुद्रा में।

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