बेहद आत्मीय और संवेदनशील इंसान भी थे मुंशी प्रेमचंद
अरुण नैथानी
यह टकसाली सत्य है कि जीवन के किसी क्षेत्र में कोई व्यक्ति यदि शिखर की सफलता हासिल करता है तो निश्चित ही उसमें कुछ ऐसे गुण भी होते हैं जो उसके व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करते हैं। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि वह एक व्यक्ति के रूप में जीवन-व्यवहार में कितना ईमानदार, संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण रखता है। आज सृजन और सृजनकारों के प्रति पाठकों-प्रशंसकों में जो एक तरह से मोहभंग हम देखते हैं, उसके मूल में व्यक्ति के सृजन के आदर्शों व निजी जीवन के व्यवहार में साम्य का न होना भी है। रचनाकार लिखता तो सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् है लेकिन निजी जीवन में वह उन आदर्शों-मूल्यों को जीता नजर नहीं आता। एक इंसान के रूप में उसके जीवन में विरोधाभास-सा नजर आता है। निस्संदेह, उपन्यास सम्राट व कालजयी कहानियों के रचयिता मुंशी प्रेमचंद की रचनाएं इस घोर भौतिकतावादी युग में भी यदि पाठक के मन को छूती हैं तो उसके मूल में उनका संवेदनशील व ईमानदार जीवन व सृजन भी है।
बंटवारे के हालात का उनके लेखन पर खासा प्रतिकूल असर पड़ा। शरीर को कई तरह के रोगों ने घेरना शुरू किया। कालांतर लिखना-पढ़ना कम हो गया। फिर वे आध्यात्मिक उन्नति के लिये समर्पित हो गये। उच्च सरकारी पद से सेवानिवृत्त भटनागर जी ने कई दशकों के बाद एक धार्मिक पुस्तक लिखी। ‘मन की माया’ शीर्षक से यह पुस्तक वर्ष 1971 में प्रकाशित हुई जिसमें अपने जीवन में भोगे आध्यात्मिक यथार्थ पर लेखन किया गया था।
सरकारी सेवा में होने के कारण उन्होंने उपनाम खुर्शीद व केदारनाथ खुर्शीद के नाम से लेखन किया। हालांकि,पारिवारिक दायित्वों के चलते उनकी सृजन यात्रा को स्वाभाविक गति न मिल सकी। फिर पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिये सरकारी नौकरी ज्वाइन करनी पड़ी। सरकारी नौकरी के कायदे-कानूनों के चलते वे छद्म नाम से लिखते थे। उनकी रचनाएं केदार नाथ खुर्शीद के नाम से पाठकों तक पहुंचती थी। दरअसल, केदारनाथ जी जासूसी नॉवल भी खूब लिखा करते थे। उस दौर में उनकी किताबों के कई संस्करणों की हजारों प्रतियां बिकी थीं। इतना ही नहीं, उस दौर में लाहौर व देश के अन्य शहरों से प्रकाशित दर्जनों अखबारों में उनके उपन्यास धारावाहिक रूप में छपते थे।
प्रेमचंद से अंतरंगता और उनके सहज व मानवीय सरोकारों की एक घटना का भटनागर जी ने विस्तार से जिक्र किया। यह वर्ष 1930 का साल था, तब केदारनाथ भटनागर जी का स्थानांतरण पूना हो गया था। वे दुविधा में थे कि नये शहर में कहां और किसके पास रुका जाए। उन्हें पता था कि प्रेमचन्द जी उन दिनों बम्बई में रह रहे थे। भटनागर जी ने बम्बई आने के लिए एक पत्र अपने रिश्तेदार को लिखा। वहीं उन्होंने दूसरा पत्र मुंशी प्रेमचन्द जी को भी लिखा। रिश्तेदार का कोई जवाब नहीं आया। लेकिन प्रेमचन्द जी का जवाब आ गया, जिनसे उनका दूर-दूर तक पारिवारिक रिश्ता न था, महज लेखक के नाते पत्र व्यवहार ही था। भटनागर जी जब बम्बई पहुंचे तो स्तब्ध रह गये। रेलवे स्टेशन पर मुंशी प्रेमचन्द लेने को आये थे।
स्टेशन पर मुंशी प्रेमचंद को देख केदारनाथ जी भाव-विभोर हो गए। उन्होंने उस दिन बंबई के दादर स्टेशन पर मुंशी जी से कहा ‘आपने यहां आने का क्यों कष्ट किया?’ वे बोले : ‘क्या हुआ भाई, मैं तो इसी रोड पर रहता हूं, बस आ गया। और तुम हो भी तो इस शहर में नये ही।’ घर पहुंचने पर भटनागर जी ने देखा उनके घर के बाहर ‘धनपतराय’ नाम की तख्ती लगी हुई थी। ‘बंबई प्रवास के दौरान तब केदारनाथ जी को मुंशी प्रेमचंद जी के साथ तीन दिन तक रहने का सौभाग्य मिला। इस दौरान साहित्य एवं राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े विषयों पर खूब चर्चा भी हुई। एक खास बात यह थी कि मुंशी प्रेमचंद जी प्रातःकाल नियमित रूप से घूमने जाया करते थे।
स्व. भटनागर की धर्मपत्नी श्रीमती जानकी देवी भटनागर ने बताया था कि मुंशी जी की तरह ही उनकी सहभागिनी भी उतनी ही विशाल हृदय व मिलनसार थीं। उन्होंने आगे बताया था, ‘जब मैं उनके घर पहुंची तो सारे मुहल्ले की औरतों से बोलीं कि मेरी बहू आयी है।’ वे तब श्रीमती भटनागर पर आत्मीयतावश अधिकार जताते हुए बोली थीं, ‘यहां क्यों बैठी हो कुछ रसोई में बनाओ।’ उन्हें हलुआ खाना विशेष रूप से पसन्द था। तब उन्होंने सारे घर की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी थी। मैं एक अच्छी सास के साथ आत्मीय बंधन में बंध गयी थी।’
इसी दौरान मुंशी प्रेमचन्द को एक साहित्यिक सम्मेलन में भाग लेने के लिये मद्रास जाना पड़ा। मुंशी जी अपना सारा फ्लैट, अपने बक्से एवं सम्पत्ति बिना ताला लगाए केदारनाथ भटनागर जी के पास छोड़ गये थे। जब मुंशी जी तांगे से जाने लगे थे तो केदारनाथ भटनागर जी से न रहा गया। उन्होंने मुंशी जी से कहा था, ‘आप अपना सामान इस तरह क्यों छोड़कर जा रहे हो? हम असहज महसूस कर रहे हैं।’ मुंशीजी बोले, ‘यह सब तो मैं आप ही के लिये छोड़कर जा रहा हूं। किसी चीज की आवश्यकता पड़े तो ले लेना। ताले तो चोरों के लिए होते हैं, अपनों के लिए नहीं।’ यह सब सुनकर भटनागर जी भावविभोर हो गये। महज कुछ दिन की पहचान और इतना गहरा विश्वास। वर्षों से परिचित तथा रक्त के रिश्तों में भी लोग ऐसा भरोसा जाहिर नहीं करते। इस घटनाक्रम से भटनागर जी के मन में मुंशी जी के प्रति अगाध सम्मान पैदा हुआ। यह सम्मान वक्त के साथ-साथ कालांतर निरन्तर सुदृढ़ होता गया। उन्होंने कहा, अगर मुंशीजी की जगह मेरा भाई भी होता तो वह भी इस तरह खुला घर-जेवर आदि छोड़कर न जाता।
इसके बाद उनका मुंशी प्रेमचंद जी से पत्र व्यवहार नियमित रूप से चलता रहा। वर्ष 1834 में मुंशी जी लाहौर आये तो भटनागर जी के पास ही रहे। वे तब लाहौर आर्यसमाज के सम्मेलन में भाग लेने आये थे। लाहौर में उनके साथ बिताये क्षणों को भटनागर जी अविस्मरणीय बताते थे। उन्होंने बताया था- ‘हम दोनों ताउम्र आत्मीय बंधन में बंध गये थे। उनको सुनने का सुख निराला था। प्रेमचन्द जी के देहावसान तक भटनागर जी का पत्र व्यवहार जारी रहा। उनके पास प्रेमचन्द जी के तमाम पत्र थे। वे पत्र उर्दू में लिखे गये थे। स्व. भटनागर ने तब लेखक को ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा...’ जैसे कालजयी गीत के रचयिता डा. अल्लामा इकबाल एवं मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा के साथ बिताये गये अवसरों का भी उल्लेख किया था।
उनके पुत्र प्रो. आर.सी. भटनागर ने बताया कि प्रकाशन-विभाग की पत्रिका उर्दू ‘योजना’ में भी केदारनाथ जी के कई लेख प्रकाशित हुए थे। केदारनाथ जी द्वारा लिखित नाटक ‘खोटी अठन्नी’ कश्मीर रेडियो से प्रसारित हुआ। इसके अलावा उनके दो नाटक ‘अहिल्या उद्धार’ एवं ‘काला बाजार’ कई जगह मंचित भी हुए। आज उनकी यादें ही बाकी हैं।